वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Monday, December 28, 2009

हंसी में सिसकियों को ढो रहा हूं...

हंसी में सिसकियों को ढो रहा हूं
मैं गिरता जा रहा हूं; खो रहा हूं

कुछ ऐसे दाग़ हैं कॉलर पे मेरे
कई अरसों से जिनको धो रहा हूं

मैंने थक के आंखें मूंद क्या ली
शहर में शोर कि मैं सो रहा हूं

मेरे ओहदे का बढ़ना लाज़िमी है
मैं रंडी से तवायफ़ हो रहा हूं

मेरी तहरीर गीली क्यों न होगी?
मैं इन ग़ज़लों में छुपके रो रहा हूं...

Monday, December 21, 2009

हार नहीं मानी है मैंने...

तो क्या जो लाइन में पीछे हैं
तो क्या जो सबसे नीचे हैं
तो क्या जो घुटना छिला है फिर
तो क्या जो 'ज़ीरो' मिला है फिर
तो क्या जो गुल्लक ख़ाली है
तो क्या जो रात बवाली है
तो क्या जो बहुत उधारी है
तो क्या जो शनि भी भारी है
तो क्या जो शेयर में लॉस हुआ
तो क्या जो ज़ालिम बॉस हुआ
तो क्या जो लड़की रूठी है
तो क्या जो क़िस्मत फूटी है
तो क्या जो नज़्म अधूरी है
तो क्या जो लाइफ भसूरी है...

इसी भसूरी में गिर-पड़ के; बढ़ने की ठानी है मैंने
हार नहीं मानी है मैंने; हार नहीं मानी है मैंने.....


तो क्या जो थोड़े रुके कदम
तो क्या जो थोड़ा झुके हैं हम
तो क्या जो लम्हे फिसले हैं
तो क्या जो हसरत छलनी है
तो क्या जो कंधा चोटिल है
तो क्या जो धुंधला साहिल है
तो क्या जो नब्ज़ है सुस्त पड़ी
तो क्या जो मंज़िल दूर खड़ी
तो क्या जो सपने टूट गये
तो क्या जो अपने छूट गये
तो क्या जो साँस है फूल रही
तो क्या जो राख़ में आग दबी
तो क्या जो थके इरादे हैं
तो क्या जो बिखरे वादे हैं
तो क्या जो मोच है धड़कन में
तो क्या जो घुटते मन-मन में
तो क्या जो दुनिया हंसती है
तो क्या जो छुपके रोते हैं
तो क्या जो ज़ोर कि मैं हारूं
तो क्या जो शोर कि मैं हारूं...

इसी शोर में जीत की धीमी; आहट पहचानी है मैंने
हार नहीं मानी है मैंने; हार नहीं मानी है मैंने.....

हार नहीं मानी है मैंने; हार नहीं मानी है मैंने.......

Wednesday, December 16, 2009

यू आर ए लूज़र.....

"यू आर ए लूज़र"...
यही कहा था न तुमने मुझे,
जब आख़िरी बार मिली थी
और पलट के चली गयी थी
हमेशा के लिए...
'बयालीस सौ रुपये में महीना नहीं चलता'
'प्यार के सहारे ज़िन्दगी नहीं चलती'
और न जाने क्या क्या...
सब कुछ तो अब याद भी नहीं
आंखों के सामने अंधेरा जो छा गया था...

"यू आर ए लूज़र"...
गूंजती रहती थी ये बात मेरे कानों में
कई दिन बस रोता रहा था...
कई रात नींद नहीं आयी...
हर आहट पे चौंक पड़ता था;
कि शायद तुम वापस आ गयी हो
हर वक़्त मोबाइल को एकटक देखता था,
कि कहीं तुम्हारा कोई SMS तो नहीं...
शराब की लत भी उन्हीं दिनों लगी थी
जितना पीता था;
तुम और ज़्यादा याद आती थी...

"यू आर ए लूज़र"...
पता नहीं कब ये चोट इरादे में बदलने लगी
मोहब्बत के ज़ख्म को तो वक़्त ने भर दिया
मगर ज़मीर का घाव...
उसका क्या?
नासूर बन गया वो
गहरा लाल, फिर काला
और इस नासूर की तरह
मेरा रंग भी बदल रहा था...
गहरा, ज़िद्दी रंग...
एक एक कर सब बिखरे तिनके समेटे मैंने...
एक एक कर मंज़िलों को हासिल करता गया...
एक एक कर सब हिसाब जो लेना था तुमसे...

"यू आर ए लूज़र"...
ये एक कर्ज़ है तुम्हारा मुझपे
ज़रूर आऊंगा चुकाने एक दिन...

सुना है तुम दो बस बदल के ऑफिस जाती हो
अठारह रुपये का टिकट लेके...
भीड़ में धक्के खाते हुए...
वैसे मैंने हौंडा सिटी खरीद ली है
दो फ्लैट भी बुक करा लिये हैं,
और हाँ
'बयालीस सौ रुपये' मेरे ड्राईवर की पगार है...
ना ना
पैसे की धौंस नहीं दे रहा
खेल के नियम तो तुम्हारे बनाये हुये हैं
मैंने तो केवल ये खेल खेला है
तुम तो मुझसे ही खेल गयी थी...

किसी दिन मिलना है तुमसे...
बहाने से... इत्तेफाक़न....
तुम्हारे नेहरू प्लेस के बस स्टॉप पर
घूरना है तुम्हारी आंखों में
देर तक....
और पूछना है.....
"हू इज़ ए लूज़र"...........

Tuesday, December 15, 2009

रुबाई -- (७)

नई उम्रों का कितना बेसबर हो खून चलता है।
दिन में आँख चलती; रात को नाखून चलता है॥
बरी मानो उसे; जिसको उमर की क़ैद मिलती है
जवानी की अदालत में अलग क़ानून चलता है॥

Monday, December 14, 2009

रुबाई -- (६)

ऐसे मजनुओं से प्यार के मौसम संवरते हैं?
जो केवल इश्क करते हैं; वो पत्थर खा के मरते हैं॥
ओ लैला, सोच कर कहना तू किसका कद हुआ ऊंचा
के हम तो नौकरी और इश्क़ दोनों साथ करते हैं॥

Saturday, December 12, 2009

रुबाई -- (५)

जहाँ कश्ती मेरी डूबी; नदी सी बह के रोयी हूँ।
कलेजे से लगाये घाव को मैं सह के रोयी हूँ॥
मैं हंसती हूँ तो आंसू की लकीरें साथ खिंचती हैं
कभी कुछ कह के रोयी हूँ; कभी चुप रह के, रोयी हूँ॥

Friday, December 11, 2009

रुबाई -- (४)

मेरी मंज़िल है नज़रों में; तैयारी भी पूरी है।
मुझे अहसास है साहिल से बस थोड़ी सी दूरी है॥
मेरे दिल का तभी घायल सिपाही पूछ देता है
कि काफ़िर, जंग सारी जीतनी भी क्या ज़रूरी है??

Thursday, December 10, 2009

रुबाई -- (३)

इरादा कर के बैठे हैं कि मंज़िल तक पहुंचना है।
हमारे चैन के मग़रूर क़ातिल तक पहुंचना है॥
के हम तो ताक में हैं कब तेरा चश्मा ज़रा उतरे
तेरी आंखों के रस्ते से तेरे दिल तक पहुंचना है॥

Monday, December 7, 2009

रुबाई -- (२)

रिवाजों के शहर में एक खुशबू बो ही जायेगी।
मोहब्बत धौंस के चंगुल में ज़िद्दी हो ही जायेगी॥
सितम तू लाख कर ले टस से मस वो हो नहीं सकती
पुकारे बांसुरी कान्हा की; राधा तो ही जायेगी॥

Sunday, December 6, 2009

रुबाई -- (१)

जब बरखा तेरी ज़ुल्फ़ भिगाए; सावन अच्छा लगता है।
धूप में जब तू बाल सुखाये; आंगन अच्छा लगता है॥
दुनिया हम जैसे मजनू को पागल पागल कहती है
उस पगली लैला को ये पागलपन अच्छा लगता है॥

Tuesday, December 1, 2009

वो ग़ज़ल कहां की ग़ज़ल हुय़ी....

ग़र खून से लथपथ लफ्ज़ शान से चले नहीं
ग़र सुख़न के तलवे अंगारों पर जले नहीं
ग़र कंठ शेर का नीला हो ना विष पी के
ग़र हर्फ़ की पीड़ा सुनके मुर्दा ना चीखे
ग़र मतला दर्द में पागल होके ना झूमे
ग़र मक़ता घाव की पपड़ी को जा ना चूमे
ग़र शिकन से ज़ख़्मी ना रदीफ़ का भाल हुआ
ग़र रंग काफ़िये का ना थोड़ा लाल हुआ
ग़र बहर की साँसों में दौड़े ललकार नहीं
ग़र ग़ज़ल के सीने में नंगी तलवार नहीं....

तो ग़ज़ल कहां की ग़ज़ल हुयी
वो ग़ज़ल कहां की ग़ज़ल हुयी.....

Sunday, November 29, 2009

जब जब चले उसूलों पर...

ख़ुद रिझा रही हो कल से क्यों गजरे बांधे हैं झूलों पर
फिर ना कहना; 'क्यों भंवरा जाके बैठा है फूलों पर'

अजब निराली दुनिया; गोरख-धंधे की तुम हद देखो
मछली ख़ुद जा चोंच से चिपके; और इल्ज़ाम बगूलों पर

नए ज़माने के तेवर हैं; थोड़ा गिरना पड़ता है
पप्पू मन ही मन मुस्काये; रात की नादां भूलों पर

कह दो बुड्ढों से वो दकिया_नूसी* बातें बंद करें
ये देश है वीर जवानों का पर बरकत नामाकूलों** पर

भांड़ में जाए चुनरी साली; लुत्फ़ उठाओ, मौज करो
'काफिर' तुमने मुंह की खायी, जब जब चले उसूलों पर

'काफिर' तुमने मुंह की खायी, जब जब चले उसूलों पर...


*Dakiya_Noosi = Conservative
**Naamaakool = Good for Nothing

Wednesday, November 25, 2009

थोड़े प्यार की थोड़ी खुशियाँ (एक गीत)

थोड़ी बेधड़क; थोड़ी बेहिचक
थोड़े दिन से मैं; फ़िरूँ बावली...
थोड़ी दूरियां; थोड़े फ़ासले
थोड़ा तुम चले; थोड़ा मैं चली...

थोड़े बेख़बर; थोड़े बेफ़िक़र
मेरे ख़्वाब हैं; थोड़े रतजगे...
थोड़ा सोचती; थोड़ा जानती
थोड़ा चाँद क्यों; अच्छा लगे...

थोड़ा चाँद क्यों; अच्छा लगे...
वक़्त से मांगे थोड़े लम्हे, जीने दो; मत रोको ना...
थोड़े प्यार की थोड़ी खुशियाँ, पीने दो; मत रोको ना...


थोड़ी गुनगुनी; सी धूप को
थोड़ा गुनगुनाते; मैं चलूँ...
थोड़ी गुदगुदी; मेरे दिल में क्यों
शाम-ओ-सहर; थोड़ा मैं जलूं...

ये खिड़कियाँ; थोड़ी खोल दो
'चांदनी'; थोड़ा छू मुझे...
थोड़ा जी सकूं; थोड़ा मर मिटूं
थोड़ा प्यार कर; तू यूँ मुझे...

थोड़ा प्यार कर; तू यूँ मुझे...
दिन के ज़ख्मों को रातों को, सीने दो; मत रोको ना...
थोड़े प्यार की थोड़ी खुशियाँ, पीने दो; मत रोको ना...

थोड़े प्यार की थोड़ी खुशियाँ, पीने दो; मत रोको ना...

Sunday, November 22, 2009

इक दिन मेरे गीत....

इक दिन मेरे गीत नशा बनके सर चढ़के बोलेंगे...

इक दिन भोर की किरणें भी मेरे गीतों को गायेंगी
इक दिन सूरज सांझ ढले इनको सुनके सुस्तायेगा।
इक दिन रात की कॉपी में होंगे मेरे ही गीत लिखे
इक दिन मौसम आँख चुरा इन गीतों को दोहरायेगा॥
इक दिन मेरे गीत रुतों के राज़-ए-उल्फ़त खोलेंगे
इक दिन मेरे गीत नशा बनके सर चढ़के बोलेंगे...


इक दिन मेरे गीत ग़ज़ल बनके महफ़िल में गूंजेंगे
इक दिन लोरी बन बच्चों के गालों को सहलायेंगे।
इक दिन लावारिस साजों को गीत मेरे ही छत देंगे
इक दिन ठुमरी बन कोठों पे ठाकुर को बहलायेंगे॥
इक दिन सातों सुर बेसुध हो इन गीतों संग हो लेंगे
इक दिन मेरे गीत नशा बनके सर चढ़के बोलेंगे...

इक दिन मेरे गीत बावरे तुम तक भी जा पहुंचेंगे
इक दिन तुमको इनमें अपनी खुशबू भी आ जायेगी।
इक दिन आधी रात को तुम गीतों से प्यास बुझा लेना
इक दिन आधे ख़्वाब इन्हीं गीतों से पास बुलायेगी॥
इक दिन थके इरादे इनको रख सिरहाने सो लेंगे
इक दिन इन गीतों को सुन तुम हंस लेना हम रो लेंगे
इक दिन मेरे गीत नशा बनके सर चढ़के बोलेंगे...

इक दिन मेरे गीत नशा बनके सर चढ़के बोलेंगे...

Thursday, November 19, 2009

दर्द का ये जश्न है.....

एक पागल रात में

ख़्वाब में था आ गया
घंटों खड़ा आकाश को
एकटक तकता रहा
और अचानक हंस पड़ा
फिर गालियां बकने लगा

अर्श की दीवार पर
खून से लिखने लगा
वो शरीक-ए-जश्न हों
हाँ वो शरीक-ए-जश्न हों
जिसने धोखे खाये हों
रूह जिसकी लुट गयी
और ठरक की सेज़ पर
जिसकी सांसें घुट गयी

पंख जिसके खो गये
हाथ जिसके कट गये
जो ख़राशों में पले
प्यार से महरूम हों
ज़ख्म है जिसकी बहन
आयें वो बलवाई सब
और फ़िज़ा-ए-दर्द में
एक कतरा रूह दें
एक कतरा रूह दें...

आग सी फैली ख़बर
सुन के मुर्दे जी गये
ज़िन्दगी और मौत को
साथ रख कर पी गये
इंकलाबी आ गये
बेड़ियों को तोड़ कर
हाथ में परचम लिये
आंख में शोले लिये
दांत में हड्डी लिये
जीभ को उलटी किये
'आ गयी' मैं 'आ गया'
हर दिशा से शोर था
रास्ते खुद चल पड़े
चल पड़ी पगडंडियाँ
और दलालों से झगड़कर
मंडियों की रंडियां

मुट्ठियों को भींच कर
चीखती थीं बारहा
जाविदा ये रस्म हो
जाविदा ये साज़ हो
जाविदा इस साज़ पर
दर्द की आवाज़ हो
दर्द का ये जश्न है
दर्द का ये जश्न है
हाँ दर्द का ये जश्न है
दर्द का ये जश्न है....

Thursday, November 5, 2009

इश्क फिर हड़ताल पर है...

ख़्वाब जा सोया लचकती डाल पर है
हंसता कालीदास मेरे हाल पर है ॥

दिन हवाले नौकरी के; और जिम्मा
रात का; उस बेसुरे कव्वाल पर है ॥

अर्जियां ले दिल निकम्मा फ़िर रहा है
बेख़बर है; इश्क फिर हड़ताल पर है ॥

जायेगा ये ऊँट कि रानी कटेगी
फ़ैसला बाज़ी की अगली चाल पर है ॥

आओ हम तुम साथ में गंगा नहा लें
सुनते हैं ये कुम्भ बारह साल पर है ॥

Saturday, October 17, 2009

आकाश की दिवाली....

तारों का कोई गुट रहा होगा
चौक पर जो जुट रहा होगा

रंग ओढी अल्पना के पास
नूर का झुरमुट रहा होगा

आतिशफिशां माहौल है कल से
तम का दम तो घुट रहा होगा

चांदनी माहिर है 'पत्तों' में
चाँद पक्का लुट रहा होगा

रात जल के गिर रही होगी
और पर्दा उठ रहा होगा

Friday, October 9, 2009

ख़्वाब मेरे दीवाने निकले....

ख़्वाब मेरे दीवाने निकले
तूफाँ से टकराने निकले

तोड़ के सिग्नल; मनमौजी से
गीत मिलन के गाने निकले

सलवट करवट छोड़ के सारे
तुझ संग रात बिताने निकले

मेरे तेरे ख़्वाब जुड़े तो
बेसिर-पैर फ़साने निकले

हाथ समझ कर जिनको थामा
वो केवल दस्ताने निकले

खुशी का घर नीलाम हो गया
ग़म के कई ठिकाने निकले

नींद से खटपट तब से मानो
तारे हमें सताने निकले

उनसे बिछड़े मुद्दत गुज़री
आ के कई ज़माने निकले

फिर यादों के पतझड़ में क्यों
फूल मेरे सिरहाने निकले.......

Monday, October 5, 2009

शराब में बुराई क्या है...

बेवफ़ा कौन है यहाँ; बा-वफ़ाई क्या है ?
बहुत मुश्किल है समझना; 'सच्चाई' क्या है ?

जब दर्द ही सुकून दे और सुकूँ मीठा दर्द दे
चारागर ! भला इस मर्ज़ की दवाई क्या है ?

सवाल ये नहीं कि मोहब्बत की पगार कितनी है
सवाल ये है कि 'उपरी कमाई' क्या है ?

इंतज़ार, इज़हार, इबादत; सब तो किया है मैंने
और कैसे जताऊं; इश्क की गहराई क्या है ?

वो गंगाजल से पाक़ है जो पी के 'काफ़िर' सच कहे
होश में बताओ; शराब में बुराई क्या है ?

आंखों की गोद से निकले तो ता-उम्र यतीम रहे
उन आंसुओं से सुनिए; 'माँ से जुदाई' क्या है ?

Wednesday, September 23, 2009

गीत को मेरे, तेरी आवाज़ भी तो चाहिये....

दर्द को इन धड़कनों का साज़ भी तो चाहिये
गीत को मेरे, तेरी आवाज़ भी तो चाहिये

सिर्फ़ दौलत के सहारे 'ताज' कब बनते मियां
सरफिरों में कुछ ग़म-ए-मुमताज़ भी तो चाहिये

हुस्न की रानाईयां सब कुछ नहीं है गुलबदन
दिल को छूने के लिए; "अंदाज़" भी तो चाहिये

पंख के ज़ख्मों की टीसें; यूं तो थोडी कम सी है
उड़ने को पर हसरत-ए-परवाज़ भी तो चाहिये

जाम छलकाने फ़क़त से महफ़िलें सजती नहीं
दमसाज़ भी तो चाहिये; दिलनाज़ भी तो चाहिये

गीत को मेरे, तेरी आवाज़ भी तो चाहिये...

Thursday, September 10, 2009

कैसे लिपटी रात तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में.....

परी के किस्से, ग़ज़ल की खुशबू; लहर की थपकी, सहर का जादू
रख आया है शायर सब जज़्बात तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में
तुम ही कहो ना, कैसे लिपटी रात तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में ॥

चाँद की चोटी, धूप के गजरे; बंधे 'रिबन' से शाम के नखरे
लटों में उलझी कुदरत की सौगात तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में
तुम ही कहो ना, कैसे लिपटी रात तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में ॥

हल्की बूँदें, रात अंधेरी; मद्धम धुन पर, चलती गाड़ी
नज़र मिली उफ़्फ़... 'मेरा बांया हाथ' तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में
तुम ही कहो ना, कैसे लिपटी रात तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में ॥

ज़ुल्फ बादल, ज़ुल्फ झरना; ज़ुल्फ बोली, 'प्यार कर ना'
थिरकी उंगली और ठहरे लम्हात तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में
तुम ही कहो ना, कैसे लिपटी रात तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में ॥

ज़ुल्फ बिछाओ, सोयेंगे हम; ज़ुल्फ में छुपकर रोयेंगे हम
सावन देखे बिन बादल बरसात तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में
तुम ही कहो ना, कैसे लिपटी रात तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में ॥

तुम ही कहो ना, कैसे लिपटी रात तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में......

Monday, August 31, 2009

आज कोई लाश ज़िंदा रह न जाए....

देखना तुम चीख धीमी रह न जाये
हौसलों की ये इमारत ढह न जाये

रूह है बेदार अब इस ज़ुल्म को
दे अहिंसा की दलीलें; सह न जाये

कैंचियों से काट दो गुलदाउदी को
पीढियां तुझको 'नरम-दिल' कह न जाये

आँख क्या अब थूक में भी खून हो
आज कोई लाश ज़िंदा रह न जाये

दिल तुम्हारा बागियों की फौज सा
'चूडियों-अंगड़ाईयों' में बह न जाये

Thursday, August 27, 2009

ज़ख्म बहुत गहरा है शायद.....

हमने उसकी आँखें पढ़ ली; छुपा कोई चेहरा है शायद
वो हर बात पे हंस देती है; ज़ख्म बहुत गहरा है शायद॥

गुमसुम यादें; घायल माज़ी*, सालों से हैं सखियां उसकी
कच्ची नींद उचट जाती है; ख़्वाबों पे पहरा है शायद॥

शहर जला क्यों घर बिखरा; पगली आकाश से पूछ रही है
कौन उसे जा कर समझाए; आसमान बहरा है शायद॥

सारी उलझन, सब बेचैनी, और जो धुंधला-धुंधला ग़म है
आंसू बन के बह जाने दो; पलकों पे ठहरा है शायद॥

वो हर बात पे हंस देती है; ज़ख्म बहुत गहरा है शायद....

*माज़ी = Past

Friday, August 21, 2009

अभी तो मुठ्ठी खोली है मां....

मैं सदियों की प्यासी हूँ; मां मुझको दरिया पीने दो
ज़ख्म हरे हैं रहने दो; अपनी शर्तों पे जीने दो
पंख बड़े बेचैन हैं कब से, अब आकाश में उड़ने दो
नर्म कलाई फंस पंजों में; मुड़ती है तो मुड़ने दो
मुझमें जो पगली रहती वो नींद में अक्सर बोली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...

रात को रौंदूं, गगन से उलझूं, तेज़ हवा को मसलूंगी
ज़हर भरा है लहू में मेरे, भाग सपेरे; डस लूंगी
मैं कोयल की कूक नहीं, मैं आग लिये फुफकार रही हूँ
हीरे मोती सब नकली मैं ख़ुद अपना सृंगार रही हूँ
रस्में कसमें तोड़ ये चुनरी खूं से आज भिगो ली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...

ना मैं सीता, ना मैं मीरा; अपनी अलग कहानी है मां
ना आँचल में दूध मेरे और ना आंखों में पानी है मां
सिके सही सुर, गाने दो ना; रूह उक़ाबी मचल रही है
लाल, बैंगनी, काली, पीली, मुझमें कोई रंग बदल रही है
बागी रंग आज़ाद हुए अब बुरा न मानो होली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...

Sunday, August 9, 2009

मुगन्नी उस अधूरे गीत को गाये तो क्या गाये.....

किसी की शायरी पढ़ के जो तुम छाये तो क्या छाये
मुगन्नी* उस अधूरे गीत को गाये तो क्या गाये॥

अमीरी रंग-ओ-रौनक ले के जलसे में चली आई
गरीबी देखती, फिर सोचती, जाये तो क्या जाये॥

वो बच्ची पिछली कुछ रातों से पानी पी के सोती है
हवेली चुन रही है, व्रत के दिन, खाये तो क्या खाये॥

हमें ये फ़क्र कि हम हक़ से तारे तोड़ लाते हैं
जो सूरज मांग कर आकाश से लाये तो क्या लाये॥

चराग़-ए-इश्क लड़ के बुझ गया; तब नींद से जागे
हमारे दिल पे दस्तक दी तो क्या, आये तो क्या आये॥

*मुगन्नी = गायक

Thursday, July 30, 2009

मनाली की वो रात....

नींद में वादी मचल रही थी
धड़कन थम थम के चल रही थी।


सुला के कलियों को फूलों को
खुनक हवाएं टहल रही थी।


किरणें ओस की बूँदें पी के
आसमान से फिसल रही थी।


चाँद मनचला झाँक रहा था
चांदनी कपड़े बदल रही थी।


रूम के बाहर बर्फ जमी थी
और वो अन्दर पिघल रही थी।


उस रात मनाली के सीने में
गूँज पुरानी ग़ज़ल रही थी।

Monday, July 27, 2009

मैं तुझमें छुपकर गाऊँगा....

कितने किस्से, कितनी बातें, महका दिन था, जगमग रातें
कतरा कतरा दूर हुए वो, लम्हों की झिलमिल सौगातें।
ये रात, बात, सौगात सभी; हम दोनों में ही शामिल हैं....

जब छेडेंगे ये साज़ कभी, मैं आंखों से मुस्काउंगा
तुम मुझमें छुपकर हंस लेना, मैं तुझमें छुपकर गाऊंगा॥


आंसू, गुस्सा, शिकवे, तेवर; क्या इल्जाम हो इस दुनिया पर
तुम भी सच्ची, मैं भी सच्चा; वादा और विश्वास अमर
जब थोड़ा सा वक्त मिले तो मूँद के अपनी आंखों को....

मेरे चेहरे को पढ़ लेना, मैं लफ्ज़ नहीं दे पाउँगा
तुम मुझमें छुपकर हंस लेना, मैं तुझमें छुपकर गाऊंगा॥


क्यों तितली के पर छिलते हैं, क्यों इतने कम पल मिलते हैं
इस 'क्यों' के ज़ख्मों को हम तुम, आओ मिलजुल कर सिलते हैं
तुम धरती हो, मैं अम्बर हूँ; अपने रिश्ते का नाम नहीं....

पर जब भी बूँदें चाहोगी, मैं बादल बनकर आउंगा
तुम मुझमें छुपकर हंस लेना, मैं तुझमें छुपकर गाऊंगा॥

तुम मुझमें छुपकर हंस लेना, मैं तुझमें छुपकर गाऊंगा॥

Friday, July 17, 2009

चलता पुर्जा शायर है, गुलज़ार नहीं है

खूं तो अब भी लाल है, रफ़्तार नहीं है
'काफ़िर' तेरी ग़ज़लों में अब धार नहीं है॥

बंद करके ख़ुद ही सारी खिड़कियाँ वो
बोलते हैं घर ये हवादार नहीं है॥

शोहरों के नकाब में ना मर्सिया चलें
शहर में ऐसा कोई त्योहार नहीं है॥

उसूलों की लिबास जला डालिए हुज़ूर
अब पाँच साल आपकी सरकार नहीं है॥

ये क्या नए जुड़े तो पिछले छूटते गए
मोहब्बत इक किताब है, अख़बार नहीं है॥

***सीधा सादा आदमी है, सीधी बात कहे
चलता पुर्जा शायर है, गुलज़ार नहीं है ***

Wednesday, July 1, 2009

ऐतवार को दिन में भी हम सो लेते हैं....

ज़मीं है बंजर; फिर भी सपने बो लेते हैं
जो भी प्यार से मिले, उसी के हो लेते हैं॥

आंखों के दरवाज़े पे बेताब खड़े हैं
अश्कों को आज़ाद करें, चल रो लेते हैं॥

जब अक्सर वो ख़्वाबों में आने लगते हैं
ऐतवार को दिन में भी हम सो लेते हैं॥

उलट उलट के ग़म के मौजे कब तक पहनें
साबुन-सर्फ़ से घिसके इनको धो लेते हैं॥

मैखाने से तौबा कर ली हमने साक़ी
हाँ, महफ़िल में तारे नाचें, तो लेते हैं॥

Wednesday, June 24, 2009

अब चाँद तो लाना पड़ेगा ठाकुर...

पायल, गहने, झुमके, गजरे; सब जुर्माना पडेगा ठाकुर
फिर भी गुड़िया रूठी है, अब चाँद तो लाना पड़ेगा ठाकुर॥

हुस्न कटोरी, इश्क का चमचा; चख ली तूने ढेर शहद, क्या
रुत ने पलटी खायी है, अब नीम चबाना पड़ेगा ठाकुर॥

माना तेरी बगिया उजड़ी, माना तितली फुर्र उड़ बैठी
लेकिन उस कोयल की ख़ातिर, बाग़ लगाना पड़ेगा ठाकुर॥

कोई मीत नहीं, कोई प्रीत नहीं, साज़ों पे कोई संगीत नहीं
सावन बीता जाए है; मल्हार तो गाना पड़ेगा ठाकुर॥

जो होना था वो होना था, अब 'होनी' पे क्या रोना था
पर एक दिन तक़दीर पे भारी, एक दिवाना पड़ेगा ठाकुर॥

Thursday, April 23, 2009

हमेशा जंग में हारे, वो अच्छा आदमी क्यों हो.....


हमारे ख़्वाब की ताबीर पर काई जमी क्यों हो
हमेशा जंग में हारे; वो अच्छा आदमी क्यों हो ?

जिस शहर ने औरत की इज्ज़त बेच खायी हो
उस शहर के राजा का कुरता रेशमी क्यों हो ?

मोहब्बत शर्त पर तो की नहीं जाती मेरे हमदम
मोहब्बत है तो फिर शिद्दत में अब कुछ भी कमी क्यों हो ?

उनको भूले अरसा गुज़रा, मुद्दत बीती आलम जाने
ये उनका जिक्र आते ही तेरी साँसें थमी क्यों हो ?

हमने तय किया ग़ज़लों में अबके आग भर देंगे
फिर मक़ते की बुनियाद पर इतनी नमी क्यों हो ?

Saturday, March 28, 2009

वो अब भी फूट पड़ता है, लिपट के माँ के सीने से...

गुज़स्ता पल किनारा छोड़ जाए है सफ़ीने से
मुझे अब डर सा लगता जा रहा टुकडों में जीने से


मेरे तकिये के नीचे देखना कुछ 'वक्त' रक्खा है
के हमने आज तक रक्खे हैं वो लम्हें करीने से


बड़ा गहरा नशा है याद में; हौले से चुस्की ले
खुमारी चढ़ के बोलेगी, ज़रा रुक रुक के पीने से


मरीज़ ए ग़म के नाखुन देखते ही चारागर बोले
भला क्या फायदा होगा तुम्हारे ज़ख्म सीने से?


तू उसको लाख 'काफ़िर' कह ले; मेरा एक ही सच है
वो अब भी फूट पड़ता है लिपट के माँ के सीने से..........

Saturday, February 21, 2009

सब हिसाब चाहिए....

धूप से रौनक; चमन से कुछ गुलाब चाहिए
चांदनी कम पड़ गयी है; आफताब चाहिए

सच, मोहब्बत, ख़्वाब अक्सर जीत जाते हैं
जिसमे ये बकवास ना हो; वो किताब चाहिए

बावफ़ा इस रात को कैसे अकेला छोड़ दें
सहर के होने तलक; 'साक़ी', शराब चाहिए

ऐ मेरी तक़दीर सुन, हर बार क्यों तेरी चलेगी
तू कभी फुर्सत से मिलना; सब हिसाब चाहिए

नोंच डाले ख़्वाब नाखुन कुछ तो अपने काम आये
क्यों शिकायत है तुझे और क्या जवाब चाहिए ?

Saturday, February 14, 2009

फिर से कर ले प्यार, चल बिंदास हो जा...


फिर से कर ले प्यार, चल बिंदास हो जा

फूल कुम्हलाये तो क्या; गीत मुरझाये तो क्या
पीर मोती बनके ये, आँख छलकाए तो क्या
सूजी पलकों को छुअन से गुदगुदाने
इस दफा भी मीत ना आए तो क्या
तुझको रोता देख बासंती हवा ने
छेड़ दी मल्हार; चल बिंदास हो जा
फिर से कर ले प्यार; चल बिंदास हो जा

घुट के यूँ मरना मना है, प्यार से डरना मना है
दर्द के सिक्कों को चुनके, जेब में भरना मना है
अधखुली इन खिड़कियों की सुन सदायें
ये भी कहतीं शोक अब करना मना है
माज़ी के गोदाम में कब तक चलेगा
क़र्ज़ का व्यापार, चल बिंदास हो जा
फिर से कर ले प्यार, चल बिंदास हो जा

खोल दे फिर दिल का दर, इक दफ़ा फिर इश्क कर
क्या पता 'कैक्टस' के पीछे छुप रहा हो गुलमोहर
जा गले मिल, इश्क का ये ईद है
फूल फिर महकेंगे कहता है सहर
उठ, नए कपड़े पहन, फिर सज रहा है
इश्क का बाज़ार, चल बिंदास हो जा
फिर से कर ले प्यार, चल बिंदास हो जा

फिर से कर ले प्यार, चल बिंदास हो जा....

Thursday, February 5, 2009

कोई तुझको बुला रहा है....


ताज़ा करके याद पुरानी; फिर से मुझको भुला रहा है
दिल है कि बच्चे की माफ़िक; ज़िद पर अपनी तुला रहा है

तुझे पता है, जब रोता है, ये बच्चा बेहद रोता है
फिर क्यों 'टॉफी' दिखा दिखा कर, तू बच्चे को रुला रहा है ?

आंखों को कसमें दी हैं; ना लडेंगी ये; ना लगेंगी ये
बेकार ही इन पत्थर आंखों को, लोरी गाकर सुला रहा है

हर्फ़ में तू हर लफ्ज़ में तू; हर शेर रदीफ़-ओ-बहर में तू
इन ग़ज़लों को गौर से पढ़; कोई तुझको बुला रहा है

उस बार भी तेरी मरज़ी थी; इस बार भी तेरी ही मरज़ी है
अपना दर तो खुला रहा था; अपना दर तो खुला रहा है...

Sunday, February 1, 2009

आओ रात को पागल कर दें....

एक हम पागल एक तुम पागल
आओ रात को पागल कर दें

रात शुरू तो बात शुरू
'याहू' और 'गूगल' साथ शुरू
फिर 'मेल' शुरू और खेल शुरू
भूले बिसरे जज़्बात शुरू

टिपटिप टकटक 'चैट' पे बातें
सरगोशी से 'फ्लैट' पे बातें
क्या खाया तुम कहाँ थे दिन भर
बेतुकी 'दिस दैट' की बातें

रेत खेत माझी की बातें
'फ्यूचर' और 'माज़ी' की बातें
नग्में, सोहरे, क्लासिक, लोरी
'अम्मी' और 'माँ जी' की बातें

बैठ के बातें; सो के बातें
हंस के बातें; रो के बातें
सरपट सरपट दौडी बातें
क्यों रोके क्यों रोके बातें ?

बात बहारें; बात फुहारें
बात बुलाएं; बात पुकारें
बात में शबनम; बात में खुशबू
बात रुलाएं; बात दुलारें

बात में सावन; बात में बरखा
आओ बात को बादल कर दें
एक हम पागल एक तुम पागल
आओ रात को पागल कर दें



तीखी खट्टी इमली जैसी
चार सौ चालीस बिजली जैसी
रंग बिरंगी फुदक रही है
देखो बातें तितली जैसी

घंटी की टनटन सी बातें
चूडी की खनखन सी बातें
धकधकधकधक धकधकधकधक
है चलती धड़कन सी बातें

लैला मजनू हीर की बातें
गालिब फैज़-ओ-मीर की बातें
कुछ छोटे किस्से 'ऑफिस' के
कुछ फूटी तकदीर की बातें

जेवर वाली; तेवर वाली
शक्कर मिसरी घेवर वाली
चुटकी लेती अल्हड़ बातें
मानों भाभी देवर वाली

कुछ उजली कुछ काली बातें
लगती मीठी गाली बातें
चाँद सड़क से डांट रहा है
'बातें बातें खाली बातें'

कान पकड़ लें चाँद का आओ
तारों में हम हलचल कर दें
एक हम पागल एक तुम पागल
आओ रात को पागल कर दें




शाम की बातें; जाम की बातें
शहर में बढ़ते दाम की बातें
थोड़ी काली मिर्च छिड़क कर
उस काफिर गुमनाम की बातें

रांची और रतलाम की बातें
'क्या होगा अंजाम' की बातें
हौले से वो आहें भर के
उस शायर बदनाम की बातें

धुंधली सी कोई शाम की बातें
ढेरों ऐश-ओ-आराम की बातें
धूप से आकर पानी क्यों पी ?
खांसी सरदर्द जुकाम की बातें

महुआ, सरसों, आम की बातें
'बॉलीवुड' 'खैय्याम' की बातें
बगिया, जामुन, 'सिस्टम', रिश्ते
और कुछ कुछ फिर काम की बातें

राधा, मीरा, श्याम की बातें
मिथिला, सीता राम की बातें
इस बक बक में तीरथ; इन
बातों में चारों धाम की बातें

बात को काबा; बात को कासी
बात को इस गंगाजल कर दें
एक हम पागल एक तुम पागल
आओ रात को पागल कर दें



कपड़े, शौपिंग, खर्च की बातें
याहू, गूगल सर्च की बातें
चुगली, शिकवा, तंज़-ओ-नखरे
मैखाने और चर्च की बातें

गहरी बातें; सस्ती बातें
चूर नशे में मस्ती बातें
इठलाती शर्माती पगली
गौर से देखो; हंसती बातें

सूनापन, आकाश की बातें
चलती जाए काश के बातें
बकबकबकबक बकबकबकबक
बक झक और बकवास की बातें

'ह्यूमर' कुछ जज़्बात की बातें
जज़्बात से निकली बात की बातें
दिल से बातें; दिल की बातें
दिन की बातें; रात की बातें

अब इन सौतन रातों का क्या
और इन रिश्ते नातों का क्या
छोड़ो बेकार की बातों को
बातें हैं; इन बातों का क्या !!!

पर बची खुची इन बातों से ही
अजड़ अमर ये कुछ पल कर दें
एक हम पागल एक तुम पागल
आओ रात को पागल कर दें


एक हम पागल एक तुम पागल
आओ रात को पागल कर दें

Thursday, January 29, 2009

नैना सांवरे के.... (एक गीत)


नैना सांवरे के; दिल लिए जाए
काहे सताए बालम; रतियन जगाये

कंगना ना मांगू राजा
गजरा ना चाहूँ; आजा

तकत तकत थक गए नैना
काटु न कटे ये जुलमी रैना

अरज हमारी सैय्यां; काहे नाहिं माने.....


नैना सांवरे के; दिल लिए जाए
काहे सताए बालम; रतियन जगाये

दरपन ना भाये पिया
सखियां सताए पिया

छलक छलक जब मेघा बरसे
बिरहा अगन में ये जिया तरसे

दरद कलेजवा में; लागे सुस्ताने.....


नैना सांवरे के; दिल लिए जाए
काहे सताए बालम; रतियन जगाये

सदियों की प्यासी मीरा
चरणों की दासी मीरा

जनम जनम से मैं तोहरी पिया
मोल करो न मारे जोहरी पिया

बासी नज़र पे वारी, पीतम सयाने......
अंखियन की भासा काहे; नाहिं पहचाने......


नैना सांवरे के; दिल लिए जाए
काहे सताए बालम; रतियन जगाये......

Thursday, January 15, 2009

बिना तुम्हारे...

बरसते नैना, तरसती रैना, उदास बिस्तर, बिना तुम्हारे
है दिल की वादी, तहस नहस सी , उजाड़ बंजर, बिना तुम्हारे।

ये चाँद सूरज, सितारे बिजली, मैं कैसे भूला, ख़बर नहीं है
मैं कैसे भूलूँ, वो बंद कमरा, वो रोना अक्सर, बिना तुम्हारे।

थकी सी पलकें, झपकना चाहें, टहल टहल के, मैं रात काटूं
तुम्हारी ग़ज़लें, तुम्हारे नग्में, हवा पे लिख कर, बिना तुम्हारे।

क्या ऐसा कह दूँ, क्या ऐसा कर दूँ, अदा वो क्या हो, जो तुमको भाये
क्यों दुखता सावन, क्यों रिसता माज़ी, क्यों चुभते मंज़र,बिना तुम्हारे।

कहीं भी गूंजे, तुम्हारी वीणा, हज़ार रोकूँ, मैं अपने दिल को
मैं जानता हूँ, मैं चल पडूंगा, तुम्हारी धुन पर, बिना तुम्हारे।

तमाम मंज़िल, तमाम रूतबा, तमाम दौलत, तमाम शोहरत
मैं आज खुश हूँ, हाँ आज खुश हूँ.... कमी सी है पर, बिना तुम्हारे।

Saturday, January 10, 2009

दिल चाहे ज़िद पर अपनी हम बस यों ही अड़े रहें...

इस आज़ादी के परबत पर कुछ लम्हे खड़े रहें
दिल चाहे ज़िद पर अपनी हम बस यों ही अड़े रहें।

इस बार मेरा 'फिर समझौते' का 'मूड' नहीं है
अब चाहे मुर्दा जिस्म में लाखों कांटे गडे रहें।

थक गई हूँ मैं 'बुड्ढों' की रोका टोकी से
अरे होंगे अपने घर के चाहे जितने बड़े रहें।

मैं छीन के लूंगी धूप जो मेरे हिस्से की है
अब चाहे चाँद सितारे मेरे पांव पड़े रहें।

अब चाहे कोई आकाश मेरे क़दमों में रख दे
अब चाहे नौलक्खे में हीरे मोती जड़े रहें।

Thursday, January 8, 2009

थोडी सी रुसवाई चाहिए....

इज़्ज़त रास नहीं आती है; थोडी सी रुसवाई चाहिए
बहुत निभायी दुनियादारी, अब हमको तन्हाई चाहिए।

बादल ने दरवाज़ा खोला, दस्तक दी जब सावन ने,
मौसम की फरमाइश है ये, अदरक वाली चाय चाहिए।

ना लेन देन, ना जात पात, ना भेद भाव, ना लाज शरम
कौन मनाये पगले को; इसको 'ऐश्वर्या राय' चाहिए।

मीर-ओ-ग़ालिब रट के हमने कुछ कुछ लिखना शुरू किया
लफ्ज़ों में अब तेवर है पर ग़ज़लों में गहराई चाहिए।

'बिट्टू' जाने क्या सुन आया, माँ के पेट को छू कर बोला
बहन जलाई जाती है माँ , अबके मुझको 'भाई' चाहिए।

शायद अँधा गीता पढने वाला है....


बहरे सारे लाइन लगा कर बैठ गए
शायद अँधा गीता पढने वाला है।

गूंगे देखो चीख रहे हैं साहिल पर
'दरिया का पानी ऊपर बढ़ने वाला है'।

मैखाने में देख के 'मुल्ला' साकी सोचे
भोर भये; क्या रूप ये गढ़ने वाला है !

ये तूफ़ान से पहले का सन्नाटा है
फिर कोई इसू सूली चढ़ने वाला है।

Monday, January 5, 2009

हजारों शेर हमको मुंहज़बानी याद है....

अधूरे ख्वाब की रोती निशानी याद है
हजारों शेर हमको मुंहज़बानी याद है।

दिसम्बर की गुलाबी धूप की कातिल समां
बिखरते जुल्फ- ओ-कुर्ता आसमानी याद है।

'कामयाबी' यूँ तो उसके दर पे है
इश्क में वो 'मुंह की खानी' याद है।

नया घर है, नये कपड़े, नये बर्तन
पुराने शहर की बातें पुरानी याद है।

'दादी माँ' की याद धुंधली हो रही है
'एक था राजा - एक थी रानी'; याद है।