वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Sunday, April 25, 2010

रुबाई - (९)

इन्साफ़ हैरां लफ्ज़ की तक़लीद से है..  
ये अदालत तस्दीक़-ओ-तरदीद से है.. 

सच के हक़ में फ़ैसला जाये तो मानूं
"बाँझ औरत"  इस दफ़ा 'उम्मीद से'  है.....


तक़लीद = बिना सोचे समझे अनुकरण (follow) करना
तस्दीक़ = सही ठहराना (support  करना) 
ओ = और
तरदीद = खंडन करना (opposite of  तस्दीक़)

Tuesday, April 20, 2010

सखी....

सखी मेरे ख़्वाबों की ताबीर हो तुम
सखी मेरे सजदे की तामीर हो तुम
सखी तुम दुआ हो; सखी तुम अजां हो
सखी पाक रिश्ते की तासीर हो तुम

मेरी रूह के ज़ख़्मी हिस्से में शामिल
परियों; फ़रिश्तों के किस्से में शामिल
मोहब्बत कहीं दफ़्न होती है मर के?
यक़ीं है कि किस्मत की रेखा से लड़ के...

लहू बन के मेरे रगों में बहोगी...
किसी रात तारों से आ के कहोगी...
मैं तुझमें हूँ ज़िंदा... मैं तुझमें बसी हूँ...
मैं तुझमें हूँ ज़िंदा... मैं तुझमें बसी हूँ...



अँधेरा ये ग़म का घना हो तो क्या है?
उजाले का आना मना हो तो क्या है?
किसी ने बिछड़ते हुये सच कहा था 
फ़क़त जिस्म क्या है; फ़ना हो तो क्या है?

गायेगी बुलबुल तेरा नाम लेकर
लौटेगा सूरज वही शाम लेकर
उसी शाम ने एक वादा किया है
सुना है उसी शाम ने कह दिया है...

सखी तुम 'सदा' हो; सदा ही रहोगी
किसी रात तारों से आ के कहोगी...
मैं तुझमें हूँ ज़िंदा... मैं तुझमें बसी हूँ...
मैं तुझमें हूँ ज़िंदा... मैं तुझमें बसी हूँ...


ताबीर = परिणाम
तामीर = निर्माण
तासीर = असर
फ़ना = मौत / ख़त्म
सदा = आवाज़ / हमेशा