वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Saturday, December 27, 2008

दो चार खड़ी मिल जायेगी...

वक्त रुकेगा, धड़कन की रफ़्तार खड़ी मिल जायेगी
अगर उसी 'सिग्नल' पे वो, इस बार खड़ी मिल जायेगी।

हम तो जंगल - दरिया - सहरा, इस उम्मीद पे लाँघ गए
जब पहुंचेंगे वो हमको उस पार खड़ी मिल जायेगी।

दिल से हैं मजबूर, 'सितम' भूले सारे वरना अब तक,
आंसू की पलटन लड़ने को तैयार खड़ी मिल जायेगी।

'सोनागाछी' की गलियों को बेमतलब बदनाम किया है
जिस रस्ते पे निकल पडो, दो - चार खड़ी मिल जायेगी।

ये किस्मत है कि 'चेन्नई' में हम बसों में धक्के खाते हैं
वरना 'दिल्ली' में अपनी भी एक 'कार' खड़ी मिल जायेगी।

Friday, December 26, 2008

कुछ यूँ भी तो सीखें !!!

'क' से 'कंगन' , 'ख' से 'खन-खन'
'ग' से 'गजरे' बालों पे
'घ' से 'घर' छूटा मेरी जां
फूल खिले जब डालों पे।


'च' से 'चंदा', 'छ' से 'छत पर
'ज' से 'जब' जब आए है
'झरने' की 'झंकार' सी 'झ' से
छुप छुप के मुस्काये है।


'ट' से 'टूटा' एक सितारा
'ठ' से 'ठुमरी' हंसना तेरा
'ड' से 'डाली' झूलों वाली
'ढ' से 'ढूंढो' चैन बसेरा।


'त' से 'तुम' जब भी दिखती हो
दिल 'थ' से क्यों 'थम' सा जाए
'द' से 'दिल' में दर्द बहुत है
'ध' - 'न' साथ तो 'धड़कन' हाय।


नशे में डूबी 'प' से 'पलकें'
'फ' से 'फूलों' वाली खुशबू
'ब' - 'बाहर' और 'भ' से 'भीतर'
'म' से 'मुझ' पर तेरा जादू।


'य' - 'र' से 'या' 'रब' सुन ले तू
'ल' से 'लाल' लबों की लाली
सब कुछ भूले, भुला न पाये
'व' से 'वो' कलकत्ते वाली।


'श' से इतना 'शोर शराबा'
'स' से 'सागर' सरहद सरगम
'ह' से 'हाल-ऐ-दिल' तो यही है
कुछ तुम सीखो, कुछ सीखें हम।


'ह' से 'हाल-ऐ-दिल' तो यही है

कुछ तुम सीखो, कुछ सीखें हम।

Sunday, December 21, 2008

पर छोटा कोई कोना है क्या....

बाज़ी बाकी, रोना है क्या ?
तेरे पास खिलौना है क्या?

उसका चेहरा हीरा मोती
क्या चांदी और सोना है क्या?

कत्थई आँखें , बादल ज़ुल्फ़ें
नज़रें जादू टोना है क्या?

हम तो अंधे खुली आँख के
आगे जाने होना है क्या ?

प्यार नहीं है बिज़नेस प्यारे
इसमें पाना खोना है क्या ?

उसके दिल का कमरा 'बुक' है
पर छोटा कोई 'कोना' है क्या ?

Tuesday, December 16, 2008

होंठ काले पड़ गए....

रिश्ते की दीवारों पर "अहसान" के जाले पड़ गए
थोड़ा सा सूरज क्या माँगा, पीछे 'उजाले' पड़ गए।

सहरा, जंगल, परबत सारे, हँसते नंगे पाँव चले
रेशमी कालीन पर तलवों में छाले पड़ गए।

वो भी दिन था जब 'माँ' रोटी ले के पीछे आती थी
ये भी दिन है "चेन्नई" में खाने के लाले पड़ गए।

इस दफ़ा मिल जाए तो "हम ये कहेंगे - वो कहेंगे"
जब हुए वो रु - ब - रु , तो ज़बां पे ताले पड़ गए ?

शहर में उनके लबों की चर्चा बहुत है अब तलक
"सिगरेट" पी पी के हमारे होंठ काले पड़ गए।

Monday, December 15, 2008

तुम्हारे बाद.....


तुम्हारे बाद मुझको रेशमी आँचल नहीं भाता

तुम्हारे बाद ये सारी फ़िज़ा रूठी सी है मुझसे
तुम्हारे बाद अब बाद - ए - सबा भी घर नहीं आती
'माँ' कह रही थी अब मैं रहता चिडचिडा सा हूँ
तुम्हारे बाद मुझको नींद जो अक्सर नहीं आती

कमीनी चांदनी भी 'दर' से मेरे लौट जाती है
वो मीठे ख़्वाब भी अब रात को दस्तक नहीं देते
दिलों के सब चरागाँ हर पहर गुमसुम से रहते हैं
वो जुगनू भी मुझे अब रौशनी का हक नहीं देते

जुगनू, रौशनी, सूरज नहीं; बादल नहीं भाता
तुम्हारे बाद मुझको रेशमी आँचल नहीं भाता.......


तुम्हारे बाद के सावन मेरी आंखों में चुभते हैं
वो रिमझिम सी झडी ट्रैफिक का मुझको 'शोर' लगती हैं
तुम्हारे बाद वो जज़्बात मानो मर गए सारे
उबाऊ हो गए नगमें ; फिल्में बोर लगती हैं

तुम्हारे बाद सारी रुत यहाँ पर अनमनी सी है
तुम्हारे बाद 'बासंती हवा' रुक रुक के चलती है
तुम्हारे बाद अब मैं 'जून' में जल्दी नहीं उठता
तुम्हारे बाद जाड़े की हसीं वो रात खलती है

ठिठुरता जा रहा हूँ, पर मुझे कम्बल नहीं भाता
तुम्हारे बाद मुझको रेशमी आँचल नहीं भाता


किसी की ज़ुल्फ को अब मैं कहाँ आकाश लिखता हूँ
किसी की झील सी आंखों पे कब मैं हक जताता हूँ
कहीं भूले से जो 'अहबाब' तेरा ज़िक्र गर छेड़ें
किसी टूटे हुए पुल सा मैं मानो थरथराता हूँ

बहर है, काफिया भी है; रदीफ़ - ओ - शेर भी कायम
पर फिर भी कुछ कम है जो इनमें 'तू' नहीं आती
मेरी ग़ज़लों में बाकी अब तलक संजीदगी तो है
मेरे गीतों से तेरे जिस्म की खुशबू नहीं आती

के खुशबू से सजी यादों का वो जंगल नहीं भाता
तुम्हारे बाद मुझको रेशमी आँचल नहीं भाता

तुम्हारे बाद मुझको रेशमी आँचल नहीं भाता

आग तो फिर आग है...

रोक मत रस्ता लहू का; जो रगों में चल रहा
धूप में नरमी है पर मत सोच सूरज ढल रहा
कर रहा रोशन है वो ख़ामोश पर बेबस नहीं
मत जला दिल उस दिये का "दैर" में जो जल रहा।


हैं ज़लज़ले बेखौफ़-ओ-ज़िद्दी, नभ हिला सकते हैं ये
आ गए अपनी पे तो मन्दिर जला सकते हैं ये
कुछ जुनूं है - कुछ है कुव्वत - और कुछ अंदाज़-ए-जोखिम
चल पड़े जिस ओर पीछे जग चला सकते हैं ये।

वक्त की लपटों में झुलसे - सरफ़िरे अंदाज़ बाकी
गीत छूटे - साज़ टूटे, कायम असर - आवाज़ बाकी
खून से 'पर' तर - बतर पर 'इन्किलाबी' अब भी हैं
देख इन सनकी परिंदों को; धुनी परवाज़ बाकी।

है जोश भी ये जश्न भी और एक जूनून - ए - राग है
है दबी सी तो क्या के आख़िर आग तो फिर आग है

है दबी सी तो क्या के आख़िर आग तो फिर आग है.......

Sunday, December 14, 2008

उस दिन मैं मन्दिर जाऊँगा......

ये रोटी मेरी अपनी है
ये कौर निवाले हैं अपने
ये बिस्तर मेरे पैसों की
मेरी नींद - मेरे सपने...

रागों को बनाया मैंने है
ये गीत मेरे ही हैं सारे
सरगम को साँसें मैंने दी
फिर रंग भरे उजरे कारे...

कोयल की कू कू मेरी है
भंवरे की गुंजन है मेरी
मेरी खुशबू है सरसों में
बूंदों की छम - छम है मेरी...

कहाँ था तू जब गुर्बत में
आवाज़ मेरी घुट मरती थी
कहाँ था; जब मेरी आहें
सन्नाटों से डरती थी.....

बना दर्द को गीत किसी दिन
साथ मेरे जब गायेगा
करेगा उस दिन कोई सज़दा
उस दिन कोई मन्दिर जायेगा...




काँटों का भाग नहीं बांटा
क्यों कली में हिस्सा हो तेरा
ये फूल - चमन - झरने - परबत
कुदरत पर हक़ बस है मेरा

तड़प कभी तू भी 'रोटी' को
एक बार 'किचेन' में तू भी जल
सुहाग कभी तेरा भी उजड़े
ठिठुर कभी तू बिन कम्बल...

अरसों तक वो पागल बुढ़िया
तेरे दर पे दीप जलाती थी
जल गई बेचारी 'दंगों' में
तेरी 'रहमत' पे इठलाती थी

हाथ में ले जो 'दिया' कभी तू
उसके कब्र पे आयेगा
करेगा उस दिन कोई सज़दा
उस दिन कोई मन्दिर जायेगा........

जब साज़ पे छेड़ "तमाशाबीन"
मद्धम संगीत सुनाएगा
करूँगा उस दिन मैं सज़दा
उस दिन 'मैं ' मन्दिर जाऊँगा ........






Saturday, December 13, 2008

साथ चल देंगी.......

ज़रा फैला तो अपने 'पर', हवाएं साथ चल देंगी
ज़रा कर रूह खून-ऐ-तर; फिज़ाएँ साथ चल देंगी।

दबा मत सिसकियों को 'हार' जो आगोश में जकड़े
इन्हें दे 'इन्किलाबी स्वर'; सदायें साथ चल देंगी।

समंदर के सफर में आंकड़ों की बात बेमतलब
उछल के खोल दे लंगर; दिशाएँ साथ चल देंगी।

बहुत मुश्किल से हमने 'बा-वफ़ाई' सीखी है यारों
कहीं जो फिर गया ये 'सर'; वफायें साथ चल देंगी।

मुंह फेर के 'माँ' घंटों मुझसे रूठी रहेगी
कदम पर ज्यों ही छोड़ें घर; दुआएं साथ चल देंगी।

Wednesday, December 10, 2008

सुबह, सृंगार कर के....

(१)
शबनम से खुली, ज़ुल्फें धुली सी
किरण में रूप की मदिरा घुली सी
अल्हड़, शोख, चंचल, चुलबुली सी
घुंघरू की खनक से "चाँद" को तरसा रही है
सुबह सृंगार कर के आ रही, बस आ रही है।

(२)
गुलाबी रंग की बिंदी लगाए
रसीले नैन में काजल सजाये
दुपट्टे पे सितारे जगमगाए
शफक पे लालिमा होठों की जैसे छा रही है
सुबह सृंगार कर के आ रही, बस आ रही है।

(३)
गले में रौशनी का हार डाले
कभी कंगन, कभी झुमके संभाले
बिखेरे बाल; फिर काकुल निकाले
दर्पण में ख़ुद को देख, ख़ुद शरमा रही है
सुबह सृंगार कर के आ रही, बस आ रही है।

(४)
सुनहरी धूप के गुंचे खिलाने
नई आशा, नए जज्बे जगाने
अंधेरे के पुराने सुर मिटाने
उम्मीदों के नए कुछ गीत अबके ला रही है
सुबह सृंगार कर के आ रही, बस आ रही है।

कुछ हवा बदली हुयी है शाम से .....

चौंक उठना युं हमारे नाम से;
कुछ हवा बदली हुयी है शाम से।

इत्तेफाक़न तो नहीं मिलना है ये;
काम कोई आ पड़ा "नाकाम" से।

मेरे 'अधूरे गीत', उनके लब पे हैं;
लग रहा है डर हमें अंजाम से।

ऐ ग़म-ए-दिल, फिर वही जल्दी न कर;
इस दफा आराम से - आराम से - आराम से।

लाख समझा लें, मना लें दिल को हम;
एक नज़र; और जायेगा ये काम से।