वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Monday, December 15, 2008

आग तो फिर आग है...

रोक मत रस्ता लहू का; जो रगों में चल रहा
धूप में नरमी है पर मत सोच सूरज ढल रहा
कर रहा रोशन है वो ख़ामोश पर बेबस नहीं
मत जला दिल उस दिये का "दैर" में जो जल रहा।


हैं ज़लज़ले बेखौफ़-ओ-ज़िद्दी, नभ हिला सकते हैं ये
आ गए अपनी पे तो मन्दिर जला सकते हैं ये
कुछ जुनूं है - कुछ है कुव्वत - और कुछ अंदाज़-ए-जोखिम
चल पड़े जिस ओर पीछे जग चला सकते हैं ये।

वक्त की लपटों में झुलसे - सरफ़िरे अंदाज़ बाकी
गीत छूटे - साज़ टूटे, कायम असर - आवाज़ बाकी
खून से 'पर' तर - बतर पर 'इन्किलाबी' अब भी हैं
देख इन सनकी परिंदों को; धुनी परवाज़ बाकी।

है जोश भी ये जश्न भी और एक जूनून - ए - राग है
है दबी सी तो क्या के आख़िर आग तो फिर आग है

है दबी सी तो क्या के आख़िर आग तो फिर आग है.......

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