रिश्ते की दीवारों पर "अहसान" के जाले पड़ गए
थोड़ा सा सूरज क्या माँगा, पीछे 'उजाले' पड़ गए।
सहरा, जंगल, परबत सारे, हँसते नंगे पाँव चले
रेशमी कालीन पर तलवों में छाले पड़ गए।
वो भी दिन था जब 'माँ' रोटी ले के पीछे आती थी
ये भी दिन है "चेन्नई" में खाने के लाले पड़ गए।
इस दफ़ा मिल जाए तो "हम ये कहेंगे - वो कहेंगे"
जब हुए वो रु - ब - रु , तो ज़बां पे ताले पड़ गए ?
शहर में उनके लबों की चर्चा बहुत है अब तलक
"सिगरेट" पी पी के हमारे होंठ काले पड़ गए।
Tuesday, December 16, 2008
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वाह वाह... सही में उम्दा है... पता नहीं हम कब लिख पाएंगे
ReplyDeleteहमने भी एक बार कोशिश की थी लिखने की
कबीलों को सुनाया तो पीठ पे भाले पड़ गए।
धन्यवाद, शुक्रिया, फिर मिलेंगे
मज़ा आ गया...बहुत ही बढ़िया....तारीफ में शब्द नही मिल रहे ||
ReplyDeleteवो भी दिन था जब 'माँ' रोटी ले के पीछे आती थी
ये भी दिन है "चेन्नई" में खाने के लाले पड़ गए।
किस्मत से हम भी चेन्नई में ही रहते हैं ||
तो लगा हमारे दिल का दर्द आप बयां कर रहे हो ||