वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Monday, December 15, 2008

तुम्हारे बाद.....


तुम्हारे बाद मुझको रेशमी आँचल नहीं भाता

तुम्हारे बाद ये सारी फ़िज़ा रूठी सी है मुझसे
तुम्हारे बाद अब बाद - ए - सबा भी घर नहीं आती
'माँ' कह रही थी अब मैं रहता चिडचिडा सा हूँ
तुम्हारे बाद मुझको नींद जो अक्सर नहीं आती

कमीनी चांदनी भी 'दर' से मेरे लौट जाती है
वो मीठे ख़्वाब भी अब रात को दस्तक नहीं देते
दिलों के सब चरागाँ हर पहर गुमसुम से रहते हैं
वो जुगनू भी मुझे अब रौशनी का हक नहीं देते

जुगनू, रौशनी, सूरज नहीं; बादल नहीं भाता
तुम्हारे बाद मुझको रेशमी आँचल नहीं भाता.......


तुम्हारे बाद के सावन मेरी आंखों में चुभते हैं
वो रिमझिम सी झडी ट्रैफिक का मुझको 'शोर' लगती हैं
तुम्हारे बाद वो जज़्बात मानो मर गए सारे
उबाऊ हो गए नगमें ; फिल्में बोर लगती हैं

तुम्हारे बाद सारी रुत यहाँ पर अनमनी सी है
तुम्हारे बाद 'बासंती हवा' रुक रुक के चलती है
तुम्हारे बाद अब मैं 'जून' में जल्दी नहीं उठता
तुम्हारे बाद जाड़े की हसीं वो रात खलती है

ठिठुरता जा रहा हूँ, पर मुझे कम्बल नहीं भाता
तुम्हारे बाद मुझको रेशमी आँचल नहीं भाता


किसी की ज़ुल्फ को अब मैं कहाँ आकाश लिखता हूँ
किसी की झील सी आंखों पे कब मैं हक जताता हूँ
कहीं भूले से जो 'अहबाब' तेरा ज़िक्र गर छेड़ें
किसी टूटे हुए पुल सा मैं मानो थरथराता हूँ

बहर है, काफिया भी है; रदीफ़ - ओ - शेर भी कायम
पर फिर भी कुछ कम है जो इनमें 'तू' नहीं आती
मेरी ग़ज़लों में बाकी अब तलक संजीदगी तो है
मेरे गीतों से तेरे जिस्म की खुशबू नहीं आती

के खुशबू से सजी यादों का वो जंगल नहीं भाता
तुम्हारे बाद मुझको रेशमी आँचल नहीं भाता

तुम्हारे बाद मुझको रेशमी आँचल नहीं भाता

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