वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Saturday, July 31, 2010

रुबाई -१२

दूर पर्बत से हवा को मोड़ लाया हूँ..
बादलों का एक गुच्छा तोड़ लाया हूँ...


जो लकीरें चंद बरसों से कहीं गुमराह थीं 
वो लकीरें आज फिर मैं जोड़ लाया हूँ... 

Sunday, June 20, 2010

ज़िद्दी ख़ून उबल पड़ता है ....

ज़िद्दी ख़ून उबल पड़ता है 
जब साँसों पे बल पड़ता है


जगी आँख का सोया सपना 
नींद में अक्सर चल पड़ता है


एक शरारा बुझे तो कोई 
और शरारा जल पड़ता है 


आंसू ज़ाया ना कर 'काफ़िर'
हवन में 'गंगाजल' पड़ता है...

Sunday, May 30, 2010

कहने वालों को कहानी चाहिये....

कहने वालों को कहानी चाहिये
गाँव को पर तर्ज़ुमानी चाहिये 

है सियासी खून जिसने चख लिया 
शर्त कुछ हो; 'राजधानी' चाहिये 

कमसिनों को है तजुरबे की पड़ी 
और ज़ईफ़ों को जवानी चाहिये  

जब मिली 'व्हिस्की' तो 'सोडा' चाहिये  
मिल गया सोडा तो 'पानी' चाहिये  

एक 'राधा' से कहाँ भरता है दिल  
एक 'मीरा' सी दिवानी चाहिये  

एक कोने में खड़ा 'काफ़िर' कहे  
मुझको ग़ज़लों में रवानी चाहिये....


तर्ज़ुमानी  =  translation 
कमसिन  =  कम उम्र वाला / वाली 
ज़ईफ़  =  बुज़ुर्ग  
सियासी  =  political
रवानी  =  Flow / बहाव 

Sunday, May 23, 2010

इतनी आसानी से नहीं मरुंगा....

"मैं इतनी आसानी से नहीं मरुंगा"
अट्ठाईस साल कोई मरने की उम्र नहीं होती..
फ़क़त 'दो उम्र क़ैद'..
तो क्या जो एक एक लम्हा घुटा हूँ..
जिस्म की क़ैद में 
बदन नोचा गया
खाल उधेरी गयी 
नाखून उखाड़े गये 
छाती दागी गयी..
जुर्म?
वो क्या चीज़ है?
हाँ किसी ने एक दफ़ा कहा ज़रूर था...
"दरअसल तुम बोलते बहुत हो"
"बहस करते हो"
"उकसाते रहते हो" 
"ख़ामोश नहीं बैठते"
"मरते भी तो नहीं..."


कैसे मर जाऊं इतनी आसानी से?
अभी मुर्दे चाँद में जान डालनी है..
समेटना है धूप के टुकड़ों को..
गीतों को आवाज़ देनी है..
संवारना है नग़मों  को..
पुचकारना है अपने ज़ख्मों को..
तुम्हारे आंसू पोंछने हैं..
बहुत ज़िम्मेदारियां हैं भई
"मैं तुम्हारा ख़्वाब जो हूँ" 
वही पुराना ज़िद्दी ख़्वाब 
और वही पुरानी शर्त..
कि;
"बोलुंगा"
"बहस करुंगा "  
"उकसाता रहुंगा"
"ख़ामोश नहीं बैठुंगा"
"और न इतनी आसानी से मरुंगा"
ख़्वाब यूं नहीं मरा करते..... 
 

Friday, May 21, 2010

प्यार ऐसे जता दीजिये...

प्यार ऐसे जता दीजिये 
बेसबब ही सता दीजिये 

मेरा ईमान रख लीजिये 
मेरे हक़ में ख़ता दीजिये  

इतनी रहमत अता कीजिये
जुर्म-ए-काफ़िर बता दीजिये 

बंदगी का तलबगार हूँ 
अपने घर का पता दीजिये...


बेसबब  =  without any reason 
ख़ता  =  mistake 
रहमत  =  मेहरबानी 
अता  =  to give
जुर्म-ए-काफ़िर  =  crime of poet (Kaafir is Pen Name of the Poet)        
बंदगी  =  worship 
तलबगार  =  wisher / चाहने वाला

Sunday, May 16, 2010

रुबाई - १०

मैं कब कहती हूँ मुझको तोहफ़े-गहने दो..
मैं एक हवा का झोंका हूँ; बस बहने दो..
तुम जैसे हो वैसे ही अच्छे लगते हो 
मैं जैसी हूँ; वैसी ही मुझको रहने दो.... 

Saturday, May 15, 2010

हमें साथ ले ले.....

माहो सितारे
हमें साथ ले ले...
उल्फ़त के मारे
हमें साथ ले ले...


हंसाये रुलाये
कोई तो बुलाये
कोई तो पुकारे..
'हमें साथ ले ले'...



पूछे तरन्नुम
गीतों से मेरे
क्यों हो कंवारे?
हमें साथ ले ले...



बोले सुबक कर
काफ़िर नज़ारे;
'काफ़िर; न जा रे'
हमें साथ ले ले...



गुज़रती फ़िज़ा से
गुज़ारिश है गुल की
'हम हैं तुम्हारे..
हमें साथ ले ले'...



हम हैं तुम्हारे
हमें साथ ले ले.....




(माहो सितारे =  moon  and stars)
(उल्फ़त =  love)
(तरन्नुम =  melody)  

Friday, May 7, 2010

जहां ख़ामोश होती है; वहीं से बात करती है ....

गिलहरी सूत के धागों को ज्यों तिल-तिल कुतरती है 
वो  रूठ  जाती  है  तो  हम  पे  यूं  गुज़रती  है


कोई जाओ बता दो हमनफ़स* को बात इतनी सी 
तग़ाफ़ुल* चोट देता है; मोहब्बत घाव भरती है 


मुझे आवाज़ दो न दो; मेरी आवाज़ तो सुन लो
तुम्हारे दर से लौटी हर सदा* बेमौत मरती है 


ग़ज़ल  तू  हू-ब-हू 'काफ़िर' के महबूब जैसी है 
जहां ख़ामोश होती है; वहीं से बात करती है 


मुसव्विर* ने अधूरी; ख़्वाब की तस्वीर छोड़ी थी 
मेरी तन्हाई उसमें आसमानी रंग  भरती है...

तग़ाफ़ुल  =  Indifference
सदा  =  sound 
मुसव्विर  =  Artist / Painter 
हमनफ़स  =  Companion

Sunday, April 25, 2010

रुबाई - (९)

इन्साफ़ हैरां लफ्ज़ की तक़लीद से है..  
ये अदालत तस्दीक़-ओ-तरदीद से है.. 

सच के हक़ में फ़ैसला जाये तो मानूं
"बाँझ औरत"  इस दफ़ा 'उम्मीद से'  है.....


तक़लीद = बिना सोचे समझे अनुकरण (follow) करना
तस्दीक़ = सही ठहराना (support  करना) 
ओ = और
तरदीद = खंडन करना (opposite of  तस्दीक़)

Tuesday, April 20, 2010

सखी....

सखी मेरे ख़्वाबों की ताबीर हो तुम
सखी मेरे सजदे की तामीर हो तुम
सखी तुम दुआ हो; सखी तुम अजां हो
सखी पाक रिश्ते की तासीर हो तुम

मेरी रूह के ज़ख़्मी हिस्से में शामिल
परियों; फ़रिश्तों के किस्से में शामिल
मोहब्बत कहीं दफ़्न होती है मर के?
यक़ीं है कि किस्मत की रेखा से लड़ के...

लहू बन के मेरे रगों में बहोगी...
किसी रात तारों से आ के कहोगी...
मैं तुझमें हूँ ज़िंदा... मैं तुझमें बसी हूँ...
मैं तुझमें हूँ ज़िंदा... मैं तुझमें बसी हूँ...



अँधेरा ये ग़म का घना हो तो क्या है?
उजाले का आना मना हो तो क्या है?
किसी ने बिछड़ते हुये सच कहा था 
फ़क़त जिस्म क्या है; फ़ना हो तो क्या है?

गायेगी बुलबुल तेरा नाम लेकर
लौटेगा सूरज वही शाम लेकर
उसी शाम ने एक वादा किया है
सुना है उसी शाम ने कह दिया है...

सखी तुम 'सदा' हो; सदा ही रहोगी
किसी रात तारों से आ के कहोगी...
मैं तुझमें हूँ ज़िंदा... मैं तुझमें बसी हूँ...
मैं तुझमें हूँ ज़िंदा... मैं तुझमें बसी हूँ...


ताबीर = परिणाम
तामीर = निर्माण
तासीर = असर
फ़ना = मौत / ख़त्म
सदा = आवाज़ / हमेशा

Thursday, March 4, 2010

'सीता' पे सारा शक़ गया होगा.....

मुझे ये इल्म है कि 'राम'  रेखा लांघ बैठा है
मगर अफ़सोस कि  'सीता'  पे सारा शक़ गया होगा

चलो 'ईमान' का अब गुमशुदा में नाम लिखवा दें
के 'काफ़िर' ढूंढ कर इंसाफ़; काफ़ी थक गया होगा

सुना है 'बेगुनाही' रास्ते से लौट आयी है
यक़ीनन 'जुर्म' ले फ़रियाद; दिल्ली तक गया होगा

सरासर झूठ है, मैं ख़ुदकुशी करने को आया था
सलीबे* पे मेरा सर कोई क़ातिल रख गया होगा

अदालत! मुफ़लिसों*  से इस क़दर तुम मुंह तो मत फेरो
बहुत उम्मीद से वो दर पे दे दस्तक गया होगा....


सलीब* = सूली
मुफ़लिस* = ग़रीब

Sunday, February 28, 2010

और लम्हें तोड़ लूं मैं.....

हार कब वो हार थी ग़र ले किसी का ग़म चले तो..
जीत भी वो हार थी जो ख़ुद से नज़रें ना मिले तो..
ज़िन्दगी के साज़ पर जब ख़त्म हों ये सिलसिले तो..
हार थी या जीत ज्यादा; आंकड़ों को जोड़ लूं मैं
वक़्त की शाखों से थोड़े और लम्हें तोड़ लूं मैं

अनकहे लफ़्ज़ों को एक आवाज़ दे दूं आख़िरी दम..
अनसुने गीतों को अपने राज़ दे दूं आख़िरी दम..
अनमने शब् को नया आग़ाज़ दे दूं आख़िरी दम..
अनधुली माज़ी की चादर आख़िरी दम ओढ़ लूं मैं 
वक़्त की शाखों से थोड़े और लम्हें तोड़ लूं मैं 

वक़्त की शाखों से थोड़े और लम्हें तोड़ लूं मैं..... 

Saturday, February 27, 2010

कदमों के मेरे निशां हैं; सखी....

गलियाँ वहीं राह तकती रहीं
हम ही न जाने कहां हैं सखी

संभल के चलो मिट न जायें कहीं
कदमों के मेरे निशां हैं; सखी

साज़ों ने मुझसे है हंस के कहा
अभी तेरी साँसें जवां हैं सखी

रिहा हो रहे हैं सपने मेरे
चलो देखें कितने जहां हैं सखी

नज़र लेके फूलों से; पढना इन्हें
परियों की ये दास्तां हैं सखी.....

Friday, February 19, 2010

मैंने बुझी अंगीठी छूकर देखा है....

बासी, फ़ीका, चुभता मंज़र देखा है
सस्ते में नीलाम हुआ घर देखा है

कैसे कैसे ख़्वाबों को गिरवी रख के
गहरी नींद में सोया बिस्तर देखा है

कल तक फूल ही फूल थे जिसकी बातों में
आज उसी के हाथ में पत्थर देखा है

शायद थोड़ी आंच बची हो रिश्ते की
मैंने बुझी अंगीठी छूकर देखा है

तुम ही नब्ज़ टटोलो आके रातों की
हमने तो सूरज भी डर-डर देखा है

'काफ़िर'  को कब रोता देखा दुनिया ने
चादर से मुंह ढकते अक्सर देखा है......

Sunday, February 14, 2010

जी उठा एहसास फिर....

जी उठा एहसास फिर; नेअमत* ख़ुदा की है  
ख़ूब जानूं; ये ख़ुमारी* इब्तदा* की है

ख़ामियां उनकी सभी; 'अंदाज़' लगते हैं
या इलाही! ये नज़र कैसी अता* की है?

इश्क़ का मैं बेअदब*, हारा खिलाड़ी हूँ 
इस दफ़ा बाज़ी मगर अहद-ए-वफ़ा* की है  

आंसुओं से आसमां का रंग बदलेगा
आज अरसों बाद 'काफ़िर' ने दुआ की है

आइये अब आज़मा के देखिये हमको
जब तलक धड़कन चले ये सांस बाक़ी है...  


नेअमत   = Precious / Invaluable Thing
ख़ुमारी   = Hangover
इब्तदा   = Beginning
अता     = To Give
बेअदब   = Ill-Mannered
अहद-ए-वफ़ा = Promise of Loyalty

Monday, February 8, 2010

ये परी कहाँ से आयी है....

अब्र* में आँखें मूँद कहीं
जो छिपी हुयी थी बूँद कहीं
अलसाई किरणों सी आ के 
धरती पे मुस्कायी है.... 
परी कहाँ से आयी है...
ये परी कहाँ से आयी है.... 



छोटी उंगली, बंद है मुट्ठी
टिमटिम आँखें प्यारी सी
झट देखे और झट सो जाए
चंचल राजदुलारी सी

जीभ निकाले, कनखी मारे
घूरे आते जाते को
अलग नज़रिया देते जाये
सारे रिश्ते नाते को

बड़े रुतों के बाद नयन में
'रुत झिलमिल' सी छायी है
परी कहाँ से आयी है...
ये परी कहाँ से आयी है....




मम्मी-पापा की आँखों में
ढूंढें एक कहानी को
सफ़र की सारी बात बताये
बगल में लेटी नानी को

खाना पीना मस्त रहा सब
किसी चीज़ की 'फ़ाइट'  नहीं
बस कमरा 'कंजस्टेड'  था और 
नौ महीने से 'लाइट' नहीं

सुन के ऐसी न्यारी बातें
नानी भी शरमाई है...
परी कहाँ से आयी है...
ये परी कहाँ से आयी है....




सीपी से  कोई  मोती निकला
दुआ की ख़ुशबू साथ लिये
डोली उतरी फ़लक से मानो
तारों की बारात लिये

काजल का एक टीका करके
चंदा माथा चूम रहा
जुगनू की लोरी सुन-सुन के
घर आंगन सब झूम रहा

वक़्त ने करवट बदला देखो
ख़ुशी ने ली अंगड़ाई है
परी कहाँ से आयी है
ये परी कहाँ से आयी है...

ये परी कहाँ से आयी है !!!


*अब्र = बादल

Tuesday, February 2, 2010

इश्क़ पर हावी यहाँ दस्तूर दिखता है...

इश्क़ पर हावी यहाँ दस्तूर दिखता है
कमनज़र हूँ; पास है जो, दूर दिखता है


झूठ के सब रहनुमा आगे निकल गये
सच का पुतला चौक पे मजबूर दिखता है


रौनक-ए-महफ़िल हुआ करता था कॉलेज में
आज ऑफिस में झुका मज़दूर दिखता है


अफवाह थी शायद समय सब घाव भर देगा
पट्टियां खोलीं तो अब नासूर दिखता है


नींद में अक्सर सुना वो बड़बड़ाता   है..
"माँ तुझी में तो ख़ुदा सा नूर दिखता है"....

Tuesday, January 26, 2010

हादसों की ज़द में फिर संसद नहीं हो....

नफ़रतों की, रूह में आमद नहीं हो
हादसों की ज़द में फिर संसद नहीं हो


उस परिंदे की नज़र देना मुझे रब
जिसकी आँखों में कहीं सरहद नहीं हो


मज़हबी तामीर ही आओ गिरा दें
एक फ़िरके का बचा गुम्बद नहीं हो


तारीक़-ए-तारीख़ पर मलहम लगाएं
और कोशिश में 'छुपा मक़सद' नहीं हो


झुक के भाई से गले न मिल सकें हम
या ख़ुदा इतना किसी का क़द नहीं हो


'ओम' का टीका लगा सजदे करें सब
आज पागलपन की कोई हद नहीं हो


पाँव ज़िद्दी और होते जा रहे हैं
कौन हँसता था कि 'तुम अंगद नहीं हो'


आज सच का जाम पी कुछ बोल लूं मैं
क्या पता कल ये नशा शायद नहीं हो....

Friday, January 22, 2010

मैं गुज़रा नहीं ऐसी राहों से पहले.....

नाम-ए-मोहब्बत हो शाहों से पहले
मैं गुज़रा नहीं ऐसी राहों से पहले

इबादत में झुकने को चंदा फ़लक से
आया इधर  ईदगाहों  से पहले

मैं किस्तों में थोडा सा मर-मर के जी लूं
तेरे गेसुओं की  पनाहों से पहले

ज़बां से भी कह देंगे वो लफ्ज़ जानां
ज़रा बात कर लूं निगाहों से पहले

ख़ुदा  मुन्सिफ़ी* में मुझे इतना हक़ दे
जी भर के हंस लूं, कराहों से पहले

हथेली की रेखा पे अफ़सोस इतना
सज़ा है मुक़र्रर*; गुनाहों से पहले....


मुन्सिफ़ी = Judgement / Justice
मुक़र्रर = Decided

Wednesday, January 20, 2010

अब इसको भी 'रुबाई' कहूं???

कब तक घुट-घुट सहन करूंगा ?
धौंस का बोझा वहन करुंगा ?
जिस दिन भेजा घूमा, तेरी
'पब्लिक' में 'माँ-बहन' करुंगा.....

'पब्लिक' में 'माँ-बहन' करुंगा.....

Tuesday, January 19, 2010

रुबाई - (८)

दर्द भी एक परिंदा है; मालूम हुआ
आँखों का बाशिंदा* है; मालूम हुआ..
कल 'पिक्चर' में हिचक-हिचक के रोया तब,
'मुझमें बच्चा ज़िंदा  है'; मालूम हुआ....

*बाशिंदा = रहने वाला / निवासी

Sunday, January 17, 2010

मैं रूठती हूँ इसलिये....

बस यूँ ही...
बेवजह...
रूठने को जी करता है

कोई ख़ास झगड़ा तो नहीं हुआ
कोई 'harsh' बात भी नहीं कही तुमने
कल रात तक तो हंस बोल रही थी मैं
फिर भी...

बस यूँ ही...
आज 'coffee' तुम बनाओ...
और शक्कर उतनी; जितनी 'मुझे' पसंद है...
और फिर मुझे 'Long Drive ' पे ले चलो...

बस यूँ ही...
'Shopping' करनी है तो बस करनी है...
क्या हर बात में 'Reasoning' ज़रूरी है?

बस यूँ ही...
किसी नये नाम से पुकारो मुझे
थोड़ा पुचकारो, दुलारो मुझे...
jokes सुनाओ, हंसाओ...
खूब बकबक करो....
जैसे मैं करती हूँ...
जब तुम्हारा मूड ऑफ होता है....

बस यूँ ही...
मैं आज तुम्हें ignore करूंगी
या यूँ कहो
कि ignore करने का नाटक करूंगी
हंसी आएगी तो दांतों से होंठ काट लूंगी....

हाँ यूँ ही....
फिर पूछना मुझसे, 'क्या हुआ'
और मैं कहूँगी 'कुछ नहीं'
और तुम फिर पूछना 'स्वीटी क्या हुआ, बताओ ना'
और मैं मुंह फेर के कहूँगी
'just  leave  it'
और तुम फिर पूछना...
चलने देना ये सिलसिला
बार बार पूछना
ज़ुल्फ़ों को सहलाते हुये
उँगलियों से गुदगुदाते हुये
और यक़ायक मुझे बांहों में भर लेना...
कहना, 'माय बेबी'...
उफ्फ्फ्फ़...
शायद तुम्हें इल्म नहीं
तुम्हारे ये 'माय' कहना....
कितना मायने रखता है मेरे लिए
मानो एक पल में
दुनिया ख़ूबसूरत हो जाती है....
पता नहीं क्यों...
बस यूँ ही...
एक secret  बता दूं तुम्हें?

तुम अज़ीज़ी से संवारो;
टूटती हूँ इसलिये
तुम मनाओ प्यार से मैं
रूठती हूँ इसलिये...

मैं रूठती हूँ इसलिये....

Sunday, January 10, 2010

आसमां के पार तुमको ले चलुंगा...

बादलों का इक सिरा मैं हाथ में ले
जगमगाती चांदनी को साथ में ले
होंठ पर एक फूल रक्खे और नयन में
जुगनुओं से ख़्वाब को सौगात में ले...
अर्श की दहलीज़ पर तुमसे मिलुंगा
आसमां के पार तुमको ले चलुंगा...

रागिनी और राग की आबाद दुनिया
तितलियों के पंख सी आज़ाद दुनिया
सब सितारे आ गए हैं प्रीत ले के
थरथराते लब पे ताज़े गीत ले के
है हवा बेताब देखो झूमने को
मखमली तलवे को तेरे चूमने को
चाँद लेके हार रस्ते पे खड़ा है
आ भी जाओ कि मुआं ज़िद्दी बड़ा है
कहकशां में गूंजती मल्हार सुन लो
नभ की छाती में धड़कता प्यार; सुन लो....

आओ भी अब रात सजदे में झुकी है
आओ भी कि सांस सीने में रुकी है
क्यूँ परेशां हो कि लौ ये बुझ न जाये
रौशनी से बात मेरी हो चुकी है...
लौ बुझी तो रास्तों पे मैं जलुंगा
आसमां के पार तुमको ले चलुंगा...
आसमां के पार तुमको ले चलुंगा.......

Saturday, January 2, 2010

न जाने वो लहंगा कहां बांधते हैं....

सुना है सनम की कमर ही नहीं है
न जाने वो लहंगा कहां बांधते हैं

ग़ज़ल कहने वाले हैं लब सिल के बैठे
जो आये थे सुनने; समां बांधते हैं

चलो उन मुसाफ़िरों को साथ ले लो
जो गठरी में आह-ओ-फ़ुगां बांधते हैं

तुम नाहक मेरे स्वप्न रोके खड़े हो
कहीं रस्सियों से धुआं बांधते हैं ?

मेरी शायरी इक इबादत है उनकी
जो पलकों से आब-ए-रवां बांधते हैं....

सुना है सनम की कमर ही नहीं है
न जाने वो लहंगा कहां बांधते हैं.......

(फ़ुगां = दुहाई)
(आब-ए-रवां = बहता पानी)