मुझे ये इल्म है कि 'राम' रेखा लांघ बैठा है
मगर अफ़सोस कि 'सीता' पे सारा शक़ गया होगा
चलो 'ईमान' का अब गुमशुदा में नाम लिखवा दें
के 'काफ़िर' ढूंढ कर इंसाफ़; काफ़ी थक गया होगा
सुना है 'बेगुनाही' रास्ते से लौट आयी है
यक़ीनन 'जुर्म' ले फ़रियाद; दिल्ली तक गया होगा
सरासर झूठ है, मैं ख़ुदकुशी करने को आया था
सलीबे* पे मेरा सर कोई क़ातिल रख गया होगा
अदालत! मुफ़लिसों* से इस क़दर तुम मुंह तो मत फेरो
बहुत उम्मीद से वो दर पे दे दस्तक गया होगा....
सलीब* = सूली
मुफ़लिस* = ग़रीब
Thursday, March 4, 2010
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amazingly well written, very nice and touching.
ReplyDeleteलाजवाब !!!
ReplyDeleteपहला शेर ही मन को भा गया....
मुझे ये इल्म है कि 'राम' रेखा लांघ बैठा है
मगर अफ़सोस कि 'सीता' पे सारा शक़ गया होगा
आज के दौर कि तल्ख़ हकीकत बताती हुई एक सामायिक रचना ....अत्यंत गूढ़ भावों से सुसज्जित इस गज़ल के लिए आभार !!
बेहतरीन!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ग़ज़ल है !
ReplyDeleteरचना बहुत पसंद आयी, भाव दिल खुश करने वाले है, मतला भी रखते तो पढ़ने का मजा ४ गुना हो जाता
ReplyDeletebahut sundar. umda abhivyakti ...
ReplyDeleteoutstanding..har sher kaamyab
ReplyDeleteumda ghazal..
ReplyDeletesimply nice......
ReplyDeleteसरासर झूठ है, मैं ख़ुदकुशी करने को आया था
सलीबे* पे मेरा सर कोई क़ातिल रख गया होगा
Banned Area News : Sunlight can damage your eyes
बहुत उम्दा ग़ज़ल है..........अगर में गलत नहीं तो शायद ये बहर है
ReplyDelete1222 1222 1222
आखिरी शेर की पहली पंक्ति इसमें नहीं बैठती..........अगर 'तो' हटा देंगे तो शायद ठीक हो जायेगी.........
अदालत! मुफ़लिसों* से इस क़दर तुम मुंह तो मत फेरो
बहुत उम्मीद से वो दर पे दे दस्तक गया होगा...
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इसी बहर मे फानी साहब की ये ग़ज़ल है......
चले भी आओ ये है कब्र-ए-फानी देखते जाओ
तुम अपने मरने वाले की निशानी, देखते जाओ
चित्रा सिंह जी ने इसे गाया है.
चले bhi
atti uttam huzur
ReplyDeletedhanyawaad aapka jo hum jaise nachij ko kuch gyan diya