"यू आर ए लूज़र"...
यही कहा था न तुमने मुझे,
जब आख़िरी बार मिली थी
और पलट के चली गयी थी
हमेशा के लिए...
'बयालीस सौ रुपये में महीना नहीं चलता'
'प्यार के सहारे ज़िन्दगी नहीं चलती'
और न जाने क्या क्या...
सब कुछ तो अब याद भी नहीं
आंखों के सामने अंधेरा जो छा गया था...
"यू आर ए लूज़र"...
गूंजती रहती थी ये बात मेरे कानों में
कई दिन बस रोता रहा था...
कई रात नींद नहीं आयी...
हर आहट पे चौंक पड़ता था;
कि शायद तुम वापस आ गयी हो
हर वक़्त मोबाइल को एकटक देखता था,
कि कहीं तुम्हारा कोई SMS तो नहीं...
शराब की लत भी उन्हीं दिनों लगी थी
जितना पीता था;
तुम और ज़्यादा याद आती थी...
"यू आर ए लूज़र"...
पता नहीं कब ये चोट इरादे में बदलने लगी
मोहब्बत के ज़ख्म को तो वक़्त ने भर दिया
मगर ज़मीर का घाव...
उसका क्या?
नासूर बन गया वो
गहरा लाल, फिर काला
और इस नासूर की तरह
मेरा रंग भी बदल रहा था...
गहरा, ज़िद्दी रंग...
एक एक कर सब बिखरे तिनके समेटे मैंने...
एक एक कर मंज़िलों को हासिल करता गया...
एक एक कर सब हिसाब जो लेना था तुमसे...
"यू आर ए लूज़र"...
ये एक कर्ज़ है तुम्हारा मुझपे
ज़रूर आऊंगा चुकाने एक दिन...
सुना है तुम दो बस बदल के ऑफिस जाती हो
अठारह रुपये का टिकट लेके...
भीड़ में धक्के खाते हुए...
वैसे मैंने हौंडा सिटी खरीद ली है
दो फ्लैट भी बुक करा लिये हैं,
और हाँ
'बयालीस सौ रुपये' मेरे ड्राईवर की पगार है...
ना ना
पैसे की धौंस नहीं दे रहा
खेल के नियम तो तुम्हारे बनाये हुये हैं
मैंने तो केवल ये खेल खेला है
तुम तो मुझसे ही खेल गयी थी...
किसी दिन मिलना है तुमसे...
बहाने से... इत्तेफाक़न....
तुम्हारे नेहरू प्लेस के बस स्टॉप पर
घूरना है तुम्हारी आंखों में
देर तक....
और पूछना है.....
"हू इज़ ए लूज़र"...........
Wednesday, December 16, 2009
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वाकई..."हू इज़ ए लूज़र"....
ReplyDeleteबढ़िया रचना!
wakai, bahut badhia , maza aa gaya.
ReplyDeleteDil dukha bhi hai.... toota bhi hai. Jakhm gehra hai.... shyaad uski yaadein hi is ghaav ki dawa hain.
ReplyDeleteइस कडवाहट में भी एक अजब सी मिठास है.
ReplyDeleteएक अनकही हार है और एक शायद अनजानी, अनमनी जीत है
जो भी है, एक अजब सी मिठास है
badi baat zyada shabdon mein keh di...
ReplyDelete"यू आर ए लूज़र"...
ReplyDeleteयही कहा था न तुमने मुझे,
जब आख़िरी बार मिली थी
और पलट के चली गयी थी
हमेशा के लिए...
'बयालीस सौ रुपये में महीना नहीं चलता'
'प्यार के सहारे ज़िन्दगी नहीं चलती'
और न जाने क्या क्या...
सब कुछ तो अब याद भी नहीं
आंखों के सामने अंधेरा जो छा गया था... etne me hi ik poori kavita smayee hai..or mobile ke inbox me check kiya hoga ki may b msg flash na kiya ho or inbox me ho.jab itni chaht thi to kya puchh paoge nehru place ke bus stop pe ki "हू इज़ ए लूज़र".shayad!!
bahut khub behtarin rachna
ReplyDeletebahut -2 abhar
Simply Amazing Vishal !!
ReplyDeleteVery funny in its own painful way !
ReplyDeletekeep up