हंसी में सिसकियों को ढो रहा हूं
मैं गिरता जा रहा हूं; खो रहा हूं
कुछ ऐसे दाग़ हैं कॉलर पे मेरे
कई अरसों से जिनको धो रहा हूं
मैंने थक के आंखें मूंद क्या ली
शहर में शोर कि मैं सो रहा हूं
मेरे ओहदे का बढ़ना लाज़िमी है
मैं रंडी से तवायफ़ हो रहा हूं
मेरी तहरीर गीली क्यों न होगी?
मैं इन ग़ज़लों में छुपके रो रहा हूं...
Monday, December 28, 2009
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बढ़िया जज़्बात...सुंदर ग़ज़ल,,बधाई
ReplyDeleteएक अच्छी रचना
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना ....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया!!
ReplyDeleteयह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।
हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.
निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
आपका साधुवाद!!
शुभकामनाएँ!
समीर लाल
उड़न तश्तरी
umda.
ReplyDeleteहंसी में सिसकियों को ढो रहा हूं
ReplyDeleteमैं गिरता जा रहा हूं; खो रहा हूं
दूसरी पंक्ति रोग के सिंप्टम बताती है तो पहली रोग के कारण को..
वैसे यह गज़ल आपकी पहले की रचनाओं की तुलना मे थोड़ा सा कमतर लगी..क्या करें आप अपना बेंचमार्क ही इतना ऊंचा सेट कर देते हैं.. ;-)
बेहतरीन गजल | अपूर्व ने सही कहा - "आप अपना बेंचमार्क ही इतना ऊँचा सेट कर देते हैं" |
ReplyDeleteआभार |
उम्दा..!
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