ग़र खून से लथपथ लफ्ज़ शान से चले नहीं
ग़र सुख़न के तलवे अंगारों पर जले नहीं
ग़र कंठ शेर का नीला हो ना विष पी के
ग़र हर्फ़ की पीड़ा सुनके मुर्दा ना चीखे
ग़र मतला दर्द में पागल होके ना झूमे
ग़र मक़ता घाव की पपड़ी को जा ना चूमे
ग़र शिकन से ज़ख़्मी ना रदीफ़ का भाल हुआ
ग़र रंग काफ़िये का ना थोड़ा लाल हुआ
ग़र बहर की साँसों में दौड़े ललकार नहीं
ग़र ग़ज़ल के सीने में नंगी तलवार नहीं....
तो ग़ज़ल कहां की ग़ज़ल हुयी
वो ग़ज़ल कहां की ग़ज़ल हुयी.....
Tuesday, December 1, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
भैया !
ReplyDeleteजब सारे औजारों की चर्चा किये तो
रदीफ़ और काफिया को काहे छोड़ दिया ............
.................. आपने जो कहा वह बहुत अच्छी बात लगी .........................
umda.
ReplyDeleteAmrendra -- Shukriya
ReplyDelete'Bahar' ka Taqaaza tha 'Kaafiya' ki Charcha Naa Kii Jaaye, Aur 'Kaafiya' ko Tanha nahiin chhodna chaahte the, Isiliye 'Radeef' ka Istemaal Nahiin Kiya....
Ummeed hai Baat Aap tak Pahunch Gayi Hogi...
भई ग़ज़ल तो तब भी नही हुई जब आपने रदीफ़ और काफ़िया को तलाक दे ही दिया ;-)
ReplyDeleteखैर एक से एक खूबसूरत और करीने से लगाये हुए शब्दों की फ़स्ल पे भावों के महकते फ़ूल उगा लेना तो आपकी फ़ितरत ही है...सो नया कुछ नही कहूँगा.
..खासकर ’गर’, ’तो’, ’वो’ और ग़ज़ल की टेक्निकल शब्दावली को जिस खूबसूरती से पिरोया है आपने इस खुशबूदार नज़्म मे..वो बेमिसाल है..
हाँ आखिरी से तीसरी लाइन मे शायद आप ’सीने मे‘ के बजाय ’सीने पे’ लिखना चाहते होंगे..ऐसा लगा..
Amrendra / Apoorv --- Thanks for the feedback... I have incorporated two new lines into the same...
ReplyDeleteग़र शिकन से ज़ख़्मी ना रदीफ़ का भाल हुआ ....
ग़र रंग काफ़िये का ना थोड़ा लाल हुआ .....
ग़र बहर की साँसों में दौड़े ललकार नहीं
ReplyDeleteग़र ग़ज़ल के सीने में नंगी तलवार नहीं....
बेहतरीन!!
इस तरह की गजल का आपने बढिया खाका खींचा है ।
ReplyDeleteगजल वही है जिसे सुनकर अपने आप वाह आह निकलने लगे ।
ओह क्या कहूँ…………गजब………॥
ReplyDeleteभैया अब बहर का क्या हुवा ........ काफिया रदीफ़ ना मिले तो क्या हुवा ..... दिल के भाव अच्छे होने चाहिएं .......... सब कुछ सेट हो जाता है समय के साथ ...........
ReplyDeleteBeautiful!!!!!!!!!!!!
ReplyDelete