वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Saturday, December 12, 2009

रुबाई -- (५)

जहाँ कश्ती मेरी डूबी; नदी सी बह के रोयी हूँ।
कलेजे से लगाये घाव को मैं सह के रोयी हूँ॥
मैं हंसती हूँ तो आंसू की लकीरें साथ खिंचती हैं
कभी कुछ कह के रोयी हूँ; कभी चुप रह के, रोयी हूँ॥

9 comments:

  1. waah kya royi hai...itni khoobsurti ke saath rona sabke bas ki baat nahi

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  2. बहुत सुन्दर ..मन के उदास भावों की व्याख्या ..
    "कभी कुछ कह के रोयी हूँ; कभी चुप रह के, रोयी हूँ"

    आशु
    (http://dayinsiliconvalley.blogspot.com/)

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  3. सुंदर लगी रूबाई , शुक्रिया

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