गुज़स्ता पल किनारा छोड़ जाए है सफ़ीने से
मुझे अब डर सा लगता जा रहा टुकडों में जीने से
मेरे तकिये के नीचे देखना कुछ 'वक्त' रक्खा है
के हमने आज तक रक्खे हैं वो लम्हें करीने से
बड़ा गहरा नशा है याद में; हौले से चुस्की ले
खुमारी चढ़ के बोलेगी, ज़रा रुक रुक के पीने से
मरीज़ ए ग़म के नाखुन देखते ही चारागर बोले
भला क्या फायदा होगा तुम्हारे ज़ख्म सीने से?
तू उसको लाख 'काफ़िर' कह ले; मेरा एक ही सच है
वो अब भी फूट पड़ता है लिपट के माँ के सीने से..........
मेरे तकिये के नीचे देखना कुछ 'वक्त' रक्खा है
ReplyDeleteके हमने आज तक रक्खे हैं वो लम्हें करीने से
तू उसको लाख 'काफ़िर' कह ले; मेरा एक ही सच है
वो अब भी फूट पड़ता है लिपट के माँ के सीने
विशाल भाई जबरदस्त क्या बात है, यूँ तो हर शेर लाजवाब लेकिन ऊपर चुने दो शेर तो गज़ब ढा रहे हैं\ मेरी बधाई।
सून्दर प्रयास। बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteतू उसको लाख 'काफ़िर' कह ले; मेरा एक ही सच है
ReplyDeleteवो अब भी फूट पड़ता है लिपट के माँ के सीने से..........
really nice
भाई बेहतरीन
ReplyDeleteभाई ये दो लाइंस में तो आपने पूरा उपन्यास लिख दिया है
ReplyDeleteI had no idea you were such a poet! Beautiful. ~ Satarupa
ReplyDeleteThanks a lot for your Comments.... Thanks indeed...
ReplyDeleteतू उसको लाख 'काफ़िर' कह ले; मेरा एक ही सच है
ReplyDeleteवो अब भी फूट पड़ता है लिपट के माँ के सीने से..........
विशाल जी
इतनी खूबसूरत ग़ज़ल कह दी है अब क्या बताएं, हर शेर पर दाद निकलती है, वाह वाह कहने का मन करता है, यह शेर तो ख़ास है
Vishal, this is superb! Love it. Am going to follow your compositions more closely now :)
ReplyDeleteमान्यवर
ReplyDeleteआपने बहुत ही अच्छी kahan की गजल कही है
ख़ास कर मतला
आपका वीनस केसरी
C'est genial!!
ReplyDeleteMashallah..
ReplyDeleteगुज़स्ता पल किनारा छोड़ जाए है सफ़ीने से
ReplyDeleteमुझे अब डर सा लगता जा रहा टुकडों में जीने से
waah...waah...!1
मेरे तकिये के नीचे देखना कुछ 'वक्त' रक्खा है
के हमने आज तक रक्खे हैं वो लम्हें करीने से
bhot khoob...!!
Thanks for joining my blog "thatCoffee". My new blog's link is
ReplyDeletehttp://parastish.blogspot.com/
I am not publishing the new link on my old blog so informing the followers personally.
God bless
RC
hi,
ReplyDeleteshobhit ji ke blog se aaya....
...aake accha laga!
Bahut accha likhte hain aap.
Vakai!!
khaskar....
aaj raat ko pagal kar dein....
मेरे तकिये के नीचे देखना कुछ 'वक्त' रक्खा है
ReplyDeleteके हमने आज तक रक्खे हैं वो लम्हें करीने से
&
तू उसको लाख 'काफ़िर' कह ले; मेरा एक ही सच है
वो अब भी फूट पड़ता है लिपट के माँ के सीने से..........
wah!!
सच, मोहब्बत, ख़्वाब अक्सर जीत जाते हैं
जिसमे ये बकवास ना हो; वो किताब चाहिए
let me be ur follower !!
logon ne itna kuchh kah dala ki mere liye bacha hee naheen. achchha naheen, bahut achchha likh rahe hain.
ReplyDeleteविशाल गौरव साहब,
ReplyDeleteहाथ चूमने का मन करता है आपका....
बहुत खूब लिखा है आपने...
एक-एक शेर जिंदगी की इस भागम-भाग में मौजू जान पड़ता है.
और आपके ब्लॉग का टाइटल भी जबरदस्त है..."आज जाने की जिद न करो" ...ग़ज़ल के आगे के मिसरे खुद-बखुद जेहन में उभरने लगते हैं.
भाई..बहुत खूब!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमरीज़ ए ग़म के नाखुन देखते ही चारागर बोले
ReplyDeleteभला क्या फायदा होगा तुम्हारे ज़ख्म सीने से? * (Fair)
बड़ा गहरा नशा है याद में; हौले से चुस्की ले
ReplyDeleteखुमारी चढ़ के बोलेगी, ज़रा रुक रुक के पीने से x
ruk ruk ke chuski leke peene se nasha hota hi nahin hai.Gaurav ji koshish karein.
बड़ा गहरा नशा है याद में; हौले से चुस्की ले
ReplyDeleteखुमारी चढ़ के बोलेगी, ज़रा रुक रुक के पीने से
how true.
ख्वाबों की भीड़ गाती है खामोश तराने
ReplyDeleteयहाँ जीस्त बोलती है गजल के बहाने
माँ आ गई जहाँ वहां पाकीज़गी फैले
संजीदगी से कहते हो फितरत के फसाने
बहुत खूब लिख रहे हो गौरव ......
amazing as usual
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