मैं सदियों की प्यासी हूँ; मां मुझको दरिया पीने दो
ज़ख्म हरे हैं रहने दो; अपनी शर्तों पे जीने दो
पंख बड़े बेचैन हैं कब से, अब आकाश में उड़ने दो
नर्म कलाई फंस पंजों में; मुड़ती है तो मुड़ने दो
मुझमें जो पगली रहती वो नींद में अक्सर बोली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...
रात को रौंदूं, गगन से उलझूं, तेज़ हवा को मसलूंगी
ज़हर भरा है लहू में मेरे, भाग सपेरे; डस लूंगी
मैं कोयल की कूक नहीं, मैं आग लिये फुफकार रही हूँ
हीरे मोती सब नकली मैं ख़ुद अपना सृंगार रही हूँ
रस्में कसमें तोड़ ये चुनरी खूं से आज भिगो ली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...
ना मैं सीता, ना मैं मीरा; अपनी अलग कहानी है मां
ना आँचल में दूध मेरे और ना आंखों में पानी है मां
सिके सही सुर, गाने दो ना; रूह उक़ाबी मचल रही है
लाल, बैंगनी, काली, पीली, मुझमें कोई रंग बदल रही है
बागी रंग आज़ाद हुए अब बुरा न मानो होली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...
Friday, August 21, 2009
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बहुत ही अच्छी कविता है
ReplyDelete---
मानव मस्तिष्क पढ़ना संभव
As usual...another one with a lot of feelings...I simply love the oft-repeated "अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां..." Just too powerful!
ReplyDeleteumda rachna.
ReplyDeleteThank you so much for the encouraging words..
ReplyDeletefeels like its me you have written about....
ReplyDeleteVery inspiring thoughts, well written. After long, a poem gave me goose bumps.
ReplyDeletemaa aur beti ke rishte ka adbhut chitranakiyaa hai aapane sab kuch badal gaya lekin sita savitri ki chhavi nhi badalee
ReplyDeletedont knw wat to say.................just took my breath away........hope so you get the recognition u deserve...........
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