वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Saturday, January 2, 2010

न जाने वो लहंगा कहां बांधते हैं....

सुना है सनम की कमर ही नहीं है
न जाने वो लहंगा कहां बांधते हैं

ग़ज़ल कहने वाले हैं लब सिल के बैठे
जो आये थे सुनने; समां बांधते हैं

चलो उन मुसाफ़िरों को साथ ले लो
जो गठरी में आह-ओ-फ़ुगां बांधते हैं

तुम नाहक मेरे स्वप्न रोके खड़े हो
कहीं रस्सियों से धुआं बांधते हैं ?

मेरी शायरी इक इबादत है उनकी
जो पलकों से आब-ए-रवां बांधते हैं....

सुना है सनम की कमर ही नहीं है
न जाने वो लहंगा कहां बांधते हैं.......

(फ़ुगां = दुहाई)
(आब-ए-रवां = बहता पानी)

7 comments:

  1. बहुत बढ़िया:


    तुम नाहक मेरे स्वप्न रोके खड़े हो
    कहीं रस्सियों से धुआं बांधते हैं ?

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  2. hindi-urdu , swapn-yatharth !sulate sulate jagana ,hansate hansate rulana! kavita zindgi, shabd dhadkan bana dete ho,yaar!

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  3. तुम नाहक मेरे स्वप्न रोके खड़े हो
    कहीं रस्सियों से धुआं बांधते हैं ?

    मेरी शायरी इक इबादत है उनकी
    जो पलकों से आब-ए-रवां बांधते हैं...

    wah wah wah behatareen gazal sabhi sher lajawaab. badhaai.

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  4. देर से पढ़ना शुरू किया आपको, खल रहा है यह ! क्रमशः पढ़ जाऊँगा सब !
    इस रचना ने तो बहुत ही प्रभावित किया ! इन पंक्तियों का सौन्दर्य निरख रहा हूँ -
    "मेरी शायरी इक इबादत है उनकी
    जो पलकों से आब-ए-रवां बांधते हैं...."|

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  5. क्या पता गाउन ही पहन लेते होंगे... :)

    बहुत उम्दा

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  6. कि लम्हे मेरी ज़िन्दगी के हों साथ तेरे

    जब निकलो सफर पे ,दुआ बाँधते हैं

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  7. किसकी रचना है, ये भी बता देते तो अच्छा होता।
    मैंने बचपन मे सुनी थी...आज फिर से पढ़कर अच्छा लगा

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