सुना है सनम की कमर ही नहीं है
न जाने वो लहंगा कहां बांधते हैं
ग़ज़ल कहने वाले हैं लब सिल के बैठे
जो आये थे सुनने; समां बांधते हैं
चलो उन मुसाफ़िरों को साथ ले लो
जो गठरी में आह-ओ-फ़ुगां बांधते हैं
तुम नाहक मेरे स्वप्न रोके खड़े हो
कहीं रस्सियों से धुआं बांधते हैं ?
मेरी शायरी इक इबादत है उनकी
जो पलकों से आब-ए-रवां बांधते हैं....
सुना है सनम की कमर ही नहीं है
न जाने वो लहंगा कहां बांधते हैं.......
(फ़ुगां = दुहाई)
(आब-ए-रवां = बहता पानी)
Saturday, January 2, 2010
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बहुत बढ़िया:
ReplyDeleteतुम नाहक मेरे स्वप्न रोके खड़े हो
कहीं रस्सियों से धुआं बांधते हैं ?
hindi-urdu , swapn-yatharth !sulate sulate jagana ,hansate hansate rulana! kavita zindgi, shabd dhadkan bana dete ho,yaar!
ReplyDeleteतुम नाहक मेरे स्वप्न रोके खड़े हो
ReplyDeleteकहीं रस्सियों से धुआं बांधते हैं ?
मेरी शायरी इक इबादत है उनकी
जो पलकों से आब-ए-रवां बांधते हैं...
wah wah wah behatareen gazal sabhi sher lajawaab. badhaai.
देर से पढ़ना शुरू किया आपको, खल रहा है यह ! क्रमशः पढ़ जाऊँगा सब !
ReplyDeleteइस रचना ने तो बहुत ही प्रभावित किया ! इन पंक्तियों का सौन्दर्य निरख रहा हूँ -
"मेरी शायरी इक इबादत है उनकी
जो पलकों से आब-ए-रवां बांधते हैं...."|
क्या पता गाउन ही पहन लेते होंगे... :)
ReplyDeleteबहुत उम्दा
कि लम्हे मेरी ज़िन्दगी के हों साथ तेरे
ReplyDeleteजब निकलो सफर पे ,दुआ बाँधते हैं
किसकी रचना है, ये भी बता देते तो अच्छा होता।
ReplyDeleteमैंने बचपन मे सुनी थी...आज फिर से पढ़कर अच्छा लगा