वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Tuesday, January 26, 2010

हादसों की ज़द में फिर संसद नहीं हो....

नफ़रतों की, रूह में आमद नहीं हो
हादसों की ज़द में फिर संसद नहीं हो


उस परिंदे की नज़र देना मुझे रब
जिसकी आँखों में कहीं सरहद नहीं हो


मज़हबी तामीर ही आओ गिरा दें
एक फ़िरके का बचा गुम्बद नहीं हो


तारीक़-ए-तारीख़ पर मलहम लगाएं
और कोशिश में 'छुपा मक़सद' नहीं हो


झुक के भाई से गले न मिल सकें हम
या ख़ुदा इतना किसी का क़द नहीं हो


'ओम' का टीका लगा सजदे करें सब
आज पागलपन की कोई हद नहीं हो


पाँव ज़िद्दी और होते जा रहे हैं
कौन हँसता था कि 'तुम अंगद नहीं हो'


आज सच का जाम पी कुछ बोल लूं मैं
क्या पता कल ये नशा शायद नहीं हो....

Friday, January 22, 2010

मैं गुज़रा नहीं ऐसी राहों से पहले.....

नाम-ए-मोहब्बत हो शाहों से पहले
मैं गुज़रा नहीं ऐसी राहों से पहले

इबादत में झुकने को चंदा फ़लक से
आया इधर  ईदगाहों  से पहले

मैं किस्तों में थोडा सा मर-मर के जी लूं
तेरे गेसुओं की  पनाहों से पहले

ज़बां से भी कह देंगे वो लफ्ज़ जानां
ज़रा बात कर लूं निगाहों से पहले

ख़ुदा  मुन्सिफ़ी* में मुझे इतना हक़ दे
जी भर के हंस लूं, कराहों से पहले

हथेली की रेखा पे अफ़सोस इतना
सज़ा है मुक़र्रर*; गुनाहों से पहले....


मुन्सिफ़ी = Judgement / Justice
मुक़र्रर = Decided

Wednesday, January 20, 2010

अब इसको भी 'रुबाई' कहूं???

कब तक घुट-घुट सहन करूंगा ?
धौंस का बोझा वहन करुंगा ?
जिस दिन भेजा घूमा, तेरी
'पब्लिक' में 'माँ-बहन' करुंगा.....

'पब्लिक' में 'माँ-बहन' करुंगा.....

Tuesday, January 19, 2010

रुबाई - (८)

दर्द भी एक परिंदा है; मालूम हुआ
आँखों का बाशिंदा* है; मालूम हुआ..
कल 'पिक्चर' में हिचक-हिचक के रोया तब,
'मुझमें बच्चा ज़िंदा  है'; मालूम हुआ....

*बाशिंदा = रहने वाला / निवासी

Sunday, January 17, 2010

मैं रूठती हूँ इसलिये....

बस यूँ ही...
बेवजह...
रूठने को जी करता है

कोई ख़ास झगड़ा तो नहीं हुआ
कोई 'harsh' बात भी नहीं कही तुमने
कल रात तक तो हंस बोल रही थी मैं
फिर भी...

बस यूँ ही...
आज 'coffee' तुम बनाओ...
और शक्कर उतनी; जितनी 'मुझे' पसंद है...
और फिर मुझे 'Long Drive ' पे ले चलो...

बस यूँ ही...
'Shopping' करनी है तो बस करनी है...
क्या हर बात में 'Reasoning' ज़रूरी है?

बस यूँ ही...
किसी नये नाम से पुकारो मुझे
थोड़ा पुचकारो, दुलारो मुझे...
jokes सुनाओ, हंसाओ...
खूब बकबक करो....
जैसे मैं करती हूँ...
जब तुम्हारा मूड ऑफ होता है....

बस यूँ ही...
मैं आज तुम्हें ignore करूंगी
या यूँ कहो
कि ignore करने का नाटक करूंगी
हंसी आएगी तो दांतों से होंठ काट लूंगी....

हाँ यूँ ही....
फिर पूछना मुझसे, 'क्या हुआ'
और मैं कहूँगी 'कुछ नहीं'
और तुम फिर पूछना 'स्वीटी क्या हुआ, बताओ ना'
और मैं मुंह फेर के कहूँगी
'just  leave  it'
और तुम फिर पूछना...
चलने देना ये सिलसिला
बार बार पूछना
ज़ुल्फ़ों को सहलाते हुये
उँगलियों से गुदगुदाते हुये
और यक़ायक मुझे बांहों में भर लेना...
कहना, 'माय बेबी'...
उफ्फ्फ्फ़...
शायद तुम्हें इल्म नहीं
तुम्हारे ये 'माय' कहना....
कितना मायने रखता है मेरे लिए
मानो एक पल में
दुनिया ख़ूबसूरत हो जाती है....
पता नहीं क्यों...
बस यूँ ही...
एक secret  बता दूं तुम्हें?

तुम अज़ीज़ी से संवारो;
टूटती हूँ इसलिये
तुम मनाओ प्यार से मैं
रूठती हूँ इसलिये...

मैं रूठती हूँ इसलिये....

Sunday, January 10, 2010

आसमां के पार तुमको ले चलुंगा...

बादलों का इक सिरा मैं हाथ में ले
जगमगाती चांदनी को साथ में ले
होंठ पर एक फूल रक्खे और नयन में
जुगनुओं से ख़्वाब को सौगात में ले...
अर्श की दहलीज़ पर तुमसे मिलुंगा
आसमां के पार तुमको ले चलुंगा...

रागिनी और राग की आबाद दुनिया
तितलियों के पंख सी आज़ाद दुनिया
सब सितारे आ गए हैं प्रीत ले के
थरथराते लब पे ताज़े गीत ले के
है हवा बेताब देखो झूमने को
मखमली तलवे को तेरे चूमने को
चाँद लेके हार रस्ते पे खड़ा है
आ भी जाओ कि मुआं ज़िद्दी बड़ा है
कहकशां में गूंजती मल्हार सुन लो
नभ की छाती में धड़कता प्यार; सुन लो....

आओ भी अब रात सजदे में झुकी है
आओ भी कि सांस सीने में रुकी है
क्यूँ परेशां हो कि लौ ये बुझ न जाये
रौशनी से बात मेरी हो चुकी है...
लौ बुझी तो रास्तों पे मैं जलुंगा
आसमां के पार तुमको ले चलुंगा...
आसमां के पार तुमको ले चलुंगा.......

Saturday, January 2, 2010

न जाने वो लहंगा कहां बांधते हैं....

सुना है सनम की कमर ही नहीं है
न जाने वो लहंगा कहां बांधते हैं

ग़ज़ल कहने वाले हैं लब सिल के बैठे
जो आये थे सुनने; समां बांधते हैं

चलो उन मुसाफ़िरों को साथ ले लो
जो गठरी में आह-ओ-फ़ुगां बांधते हैं

तुम नाहक मेरे स्वप्न रोके खड़े हो
कहीं रस्सियों से धुआं बांधते हैं ?

मेरी शायरी इक इबादत है उनकी
जो पलकों से आब-ए-रवां बांधते हैं....

सुना है सनम की कमर ही नहीं है
न जाने वो लहंगा कहां बांधते हैं.......

(फ़ुगां = दुहाई)
(आब-ए-रवां = बहता पानी)