वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Saturday, March 28, 2009

वो अब भी फूट पड़ता है, लिपट के माँ के सीने से...

गुज़स्ता पल किनारा छोड़ जाए है सफ़ीने से
मुझे अब डर सा लगता जा रहा टुकडों में जीने से


मेरे तकिये के नीचे देखना कुछ 'वक्त' रक्खा है
के हमने आज तक रक्खे हैं वो लम्हें करीने से


बड़ा गहरा नशा है याद में; हौले से चुस्की ले
खुमारी चढ़ के बोलेगी, ज़रा रुक रुक के पीने से


मरीज़ ए ग़म के नाखुन देखते ही चारागर बोले
भला क्या फायदा होगा तुम्हारे ज़ख्म सीने से?


तू उसको लाख 'काफ़िर' कह ले; मेरा एक ही सच है
वो अब भी फूट पड़ता है लिपट के माँ के सीने से..........