हंसी में सिसकियों को ढो रहा हूं
मैं गिरता जा रहा हूं; खो रहा हूं
कुछ ऐसे दाग़ हैं कॉलर पे मेरे
कई अरसों से जिनको धो रहा हूं
मैंने थक के आंखें मूंद क्या ली
शहर में शोर कि मैं सो रहा हूं
मेरे ओहदे का बढ़ना लाज़िमी है
मैं रंडी से तवायफ़ हो रहा हूं
मेरी तहरीर गीली क्यों न होगी?
मैं इन ग़ज़लों में छुपके रो रहा हूं...
Monday, December 28, 2009
Monday, December 21, 2009
हार नहीं मानी है मैंने...
तो क्या जो लाइन में पीछे हैं
तो क्या जो सबसे नीचे हैं
तो क्या जो घुटना छिला है फिर
तो क्या जो 'ज़ीरो' मिला है फिर
तो क्या जो गुल्लक ख़ाली है
तो क्या जो रात बवाली है
तो क्या जो बहुत उधारी है
तो क्या जो शनि भी भारी है
तो क्या जो शेयर में लॉस हुआ
तो क्या जो ज़ालिम बॉस हुआ
तो क्या जो लड़की रूठी है
तो क्या जो क़िस्मत फूटी है
तो क्या जो नज़्म अधूरी है
तो क्या जो लाइफ भसूरी है...
इसी भसूरी में गिर-पड़ के; बढ़ने की ठानी है मैंने
हार नहीं मानी है मैंने; हार नहीं मानी है मैंने.....
तो क्या जो थोड़े रुके कदम
तो क्या जो थोड़ा झुके हैं हम
तो क्या जो लम्हे फिसले हैं
तो क्या जो हसरत छलनी है
तो क्या जो कंधा चोटिल है
तो क्या जो धुंधला साहिल है
तो क्या जो नब्ज़ है सुस्त पड़ी
तो क्या जो मंज़िल दूर खड़ी
तो क्या जो सपने टूट गये
तो क्या जो अपने छूट गये
तो क्या जो साँस है फूल रही
तो क्या जो राख़ में आग दबी
तो क्या जो थके इरादे हैं
तो क्या जो बिखरे वादे हैं
तो क्या जो मोच है धड़कन में
तो क्या जो घुटते मन-मन में
तो क्या जो दुनिया हंसती है
तो क्या जो छुपके रोते हैं
तो क्या जो ज़ोर कि मैं हारूं
तो क्या जो शोर कि मैं हारूं...
इसी शोर में जीत की धीमी; आहट पहचानी है मैंने
हार नहीं मानी है मैंने; हार नहीं मानी है मैंने.....
हार नहीं मानी है मैंने; हार नहीं मानी है मैंने.......
तो क्या जो सबसे नीचे हैं
तो क्या जो घुटना छिला है फिर
तो क्या जो 'ज़ीरो' मिला है फिर
तो क्या जो गुल्लक ख़ाली है
तो क्या जो रात बवाली है
तो क्या जो बहुत उधारी है
तो क्या जो शनि भी भारी है
तो क्या जो शेयर में लॉस हुआ
तो क्या जो ज़ालिम बॉस हुआ
तो क्या जो लड़की रूठी है
तो क्या जो क़िस्मत फूटी है
तो क्या जो नज़्म अधूरी है
तो क्या जो लाइफ भसूरी है...
इसी भसूरी में गिर-पड़ के; बढ़ने की ठानी है मैंने
हार नहीं मानी है मैंने; हार नहीं मानी है मैंने.....
तो क्या जो थोड़े रुके कदम
तो क्या जो थोड़ा झुके हैं हम
तो क्या जो लम्हे फिसले हैं
तो क्या जो हसरत छलनी है
तो क्या जो कंधा चोटिल है
तो क्या जो धुंधला साहिल है
तो क्या जो नब्ज़ है सुस्त पड़ी
तो क्या जो मंज़िल दूर खड़ी
तो क्या जो सपने टूट गये
तो क्या जो अपने छूट गये
तो क्या जो साँस है फूल रही
तो क्या जो राख़ में आग दबी
तो क्या जो थके इरादे हैं
तो क्या जो बिखरे वादे हैं
तो क्या जो मोच है धड़कन में
तो क्या जो घुटते मन-मन में
तो क्या जो दुनिया हंसती है
तो क्या जो छुपके रोते हैं
तो क्या जो ज़ोर कि मैं हारूं
तो क्या जो शोर कि मैं हारूं...
इसी शोर में जीत की धीमी; आहट पहचानी है मैंने
हार नहीं मानी है मैंने; हार नहीं मानी है मैंने.....
हार नहीं मानी है मैंने; हार नहीं मानी है मैंने.......
Wednesday, December 16, 2009
यू आर ए लूज़र.....
"यू आर ए लूज़र"...
यही कहा था न तुमने मुझे,
जब आख़िरी बार मिली थी
और पलट के चली गयी थी
हमेशा के लिए...
'बयालीस सौ रुपये में महीना नहीं चलता'
'प्यार के सहारे ज़िन्दगी नहीं चलती'
और न जाने क्या क्या...
सब कुछ तो अब याद भी नहीं
आंखों के सामने अंधेरा जो छा गया था...
"यू आर ए लूज़र"...
गूंजती रहती थी ये बात मेरे कानों में
कई दिन बस रोता रहा था...
कई रात नींद नहीं आयी...
हर आहट पे चौंक पड़ता था;
कि शायद तुम वापस आ गयी हो
हर वक़्त मोबाइल को एकटक देखता था,
कि कहीं तुम्हारा कोई SMS तो नहीं...
शराब की लत भी उन्हीं दिनों लगी थी
जितना पीता था;
तुम और ज़्यादा याद आती थी...
"यू आर ए लूज़र"...
पता नहीं कब ये चोट इरादे में बदलने लगी
मोहब्बत के ज़ख्म को तो वक़्त ने भर दिया
मगर ज़मीर का घाव...
उसका क्या?
नासूर बन गया वो
गहरा लाल, फिर काला
और इस नासूर की तरह
मेरा रंग भी बदल रहा था...
गहरा, ज़िद्दी रंग...
एक एक कर सब बिखरे तिनके समेटे मैंने...
एक एक कर मंज़िलों को हासिल करता गया...
एक एक कर सब हिसाब जो लेना था तुमसे...
"यू आर ए लूज़र"...
ये एक कर्ज़ है तुम्हारा मुझपे
ज़रूर आऊंगा चुकाने एक दिन...
सुना है तुम दो बस बदल के ऑफिस जाती हो
अठारह रुपये का टिकट लेके...
भीड़ में धक्के खाते हुए...
वैसे मैंने हौंडा सिटी खरीद ली है
दो फ्लैट भी बुक करा लिये हैं,
और हाँ
'बयालीस सौ रुपये' मेरे ड्राईवर की पगार है...
ना ना
पैसे की धौंस नहीं दे रहा
खेल के नियम तो तुम्हारे बनाये हुये हैं
मैंने तो केवल ये खेल खेला है
तुम तो मुझसे ही खेल गयी थी...
किसी दिन मिलना है तुमसे...
बहाने से... इत्तेफाक़न....
तुम्हारे नेहरू प्लेस के बस स्टॉप पर
घूरना है तुम्हारी आंखों में
देर तक....
और पूछना है.....
"हू इज़ ए लूज़र"...........
यही कहा था न तुमने मुझे,
जब आख़िरी बार मिली थी
और पलट के चली गयी थी
हमेशा के लिए...
'बयालीस सौ रुपये में महीना नहीं चलता'
'प्यार के सहारे ज़िन्दगी नहीं चलती'
और न जाने क्या क्या...
सब कुछ तो अब याद भी नहीं
आंखों के सामने अंधेरा जो छा गया था...
"यू आर ए लूज़र"...
गूंजती रहती थी ये बात मेरे कानों में
कई दिन बस रोता रहा था...
कई रात नींद नहीं आयी...
हर आहट पे चौंक पड़ता था;
कि शायद तुम वापस आ गयी हो
हर वक़्त मोबाइल को एकटक देखता था,
कि कहीं तुम्हारा कोई SMS तो नहीं...
शराब की लत भी उन्हीं दिनों लगी थी
जितना पीता था;
तुम और ज़्यादा याद आती थी...
"यू आर ए लूज़र"...
पता नहीं कब ये चोट इरादे में बदलने लगी
मोहब्बत के ज़ख्म को तो वक़्त ने भर दिया
मगर ज़मीर का घाव...
उसका क्या?
नासूर बन गया वो
गहरा लाल, फिर काला
और इस नासूर की तरह
मेरा रंग भी बदल रहा था...
गहरा, ज़िद्दी रंग...
एक एक कर सब बिखरे तिनके समेटे मैंने...
एक एक कर मंज़िलों को हासिल करता गया...
एक एक कर सब हिसाब जो लेना था तुमसे...
"यू आर ए लूज़र"...
ये एक कर्ज़ है तुम्हारा मुझपे
ज़रूर आऊंगा चुकाने एक दिन...
सुना है तुम दो बस बदल के ऑफिस जाती हो
अठारह रुपये का टिकट लेके...
भीड़ में धक्के खाते हुए...
वैसे मैंने हौंडा सिटी खरीद ली है
दो फ्लैट भी बुक करा लिये हैं,
और हाँ
'बयालीस सौ रुपये' मेरे ड्राईवर की पगार है...
ना ना
पैसे की धौंस नहीं दे रहा
खेल के नियम तो तुम्हारे बनाये हुये हैं
मैंने तो केवल ये खेल खेला है
तुम तो मुझसे ही खेल गयी थी...
किसी दिन मिलना है तुमसे...
बहाने से... इत्तेफाक़न....
तुम्हारे नेहरू प्लेस के बस स्टॉप पर
घूरना है तुम्हारी आंखों में
देर तक....
और पूछना है.....
"हू इज़ ए लूज़र"...........
Tuesday, December 15, 2009
रुबाई -- (७)
नई उम्रों का कितना बेसबर हो खून चलता है।
दिन में आँख चलती; रात को नाखून चलता है॥
बरी मानो उसे; जिसको उमर की क़ैद मिलती है
जवानी की अदालत में अलग क़ानून चलता है॥
दिन में आँख चलती; रात को नाखून चलता है॥
बरी मानो उसे; जिसको उमर की क़ैद मिलती है
जवानी की अदालत में अलग क़ानून चलता है॥
Monday, December 14, 2009
रुबाई -- (६)
ऐसे मजनुओं से प्यार के मौसम संवरते हैं?
जो केवल इश्क करते हैं; वो पत्थर खा के मरते हैं॥
ओ लैला, सोच कर कहना तू किसका कद हुआ ऊंचा
के हम तो नौकरी और इश्क़ दोनों साथ करते हैं॥
जो केवल इश्क करते हैं; वो पत्थर खा के मरते हैं॥
ओ लैला, सोच कर कहना तू किसका कद हुआ ऊंचा
के हम तो नौकरी और इश्क़ दोनों साथ करते हैं॥
Saturday, December 12, 2009
रुबाई -- (५)
जहाँ कश्ती मेरी डूबी; नदी सी बह के रोयी हूँ।
कलेजे से लगाये घाव को मैं सह के रोयी हूँ॥
मैं हंसती हूँ तो आंसू की लकीरें साथ खिंचती हैं
कभी कुछ कह के रोयी हूँ; कभी चुप रह के, रोयी हूँ॥
कलेजे से लगाये घाव को मैं सह के रोयी हूँ॥
मैं हंसती हूँ तो आंसू की लकीरें साथ खिंचती हैं
कभी कुछ कह के रोयी हूँ; कभी चुप रह के, रोयी हूँ॥
Friday, December 11, 2009
रुबाई -- (४)
मेरी मंज़िल है नज़रों में; तैयारी भी पूरी है।
मुझे अहसास है साहिल से बस थोड़ी सी दूरी है॥
मेरे दिल का तभी घायल सिपाही पूछ देता है
कि काफ़िर, जंग सारी जीतनी भी क्या ज़रूरी है??
मुझे अहसास है साहिल से बस थोड़ी सी दूरी है॥
मेरे दिल का तभी घायल सिपाही पूछ देता है
कि काफ़िर, जंग सारी जीतनी भी क्या ज़रूरी है??
Thursday, December 10, 2009
रुबाई -- (३)
इरादा कर के बैठे हैं कि मंज़िल तक पहुंचना है।
हमारे चैन के मग़रूर क़ातिल तक पहुंचना है॥
के हम तो ताक में हैं कब तेरा चश्मा ज़रा उतरे
तेरी आंखों के रस्ते से तेरे दिल तक पहुंचना है॥
हमारे चैन के मग़रूर क़ातिल तक पहुंचना है॥
के हम तो ताक में हैं कब तेरा चश्मा ज़रा उतरे
तेरी आंखों के रस्ते से तेरे दिल तक पहुंचना है॥
Monday, December 7, 2009
रुबाई -- (२)
रिवाजों के शहर में एक खुशबू बो ही जायेगी।
मोहब्बत धौंस के चंगुल में ज़िद्दी हो ही जायेगी॥
सितम तू लाख कर ले टस से मस वो हो नहीं सकती
पुकारे बांसुरी कान्हा की; राधा तो ही जायेगी॥
मोहब्बत धौंस के चंगुल में ज़िद्दी हो ही जायेगी॥
सितम तू लाख कर ले टस से मस वो हो नहीं सकती
पुकारे बांसुरी कान्हा की; राधा तो ही जायेगी॥
Sunday, December 6, 2009
रुबाई -- (१)
जब बरखा तेरी ज़ुल्फ़ भिगाए; सावन अच्छा लगता है।
धूप में जब तू बाल सुखाये; आंगन अच्छा लगता है॥
दुनिया हम जैसे मजनू को पागल पागल कहती है
उस पगली लैला को ये पागलपन अच्छा लगता है॥
धूप में जब तू बाल सुखाये; आंगन अच्छा लगता है॥
दुनिया हम जैसे मजनू को पागल पागल कहती है
उस पगली लैला को ये पागलपन अच्छा लगता है॥
Tuesday, December 1, 2009
वो ग़ज़ल कहां की ग़ज़ल हुय़ी....
ग़र खून से लथपथ लफ्ज़ शान से चले नहीं
ग़र सुख़न के तलवे अंगारों पर जले नहीं
ग़र कंठ शेर का नीला हो ना विष पी के
ग़र हर्फ़ की पीड़ा सुनके मुर्दा ना चीखे
ग़र मतला दर्द में पागल होके ना झूमे
ग़र मक़ता घाव की पपड़ी को जा ना चूमे
ग़र शिकन से ज़ख़्मी ना रदीफ़ का भाल हुआ
ग़र रंग काफ़िये का ना थोड़ा लाल हुआ
ग़र बहर की साँसों में दौड़े ललकार नहीं
ग़र ग़ज़ल के सीने में नंगी तलवार नहीं....
तो ग़ज़ल कहां की ग़ज़ल हुयी
वो ग़ज़ल कहां की ग़ज़ल हुयी.....
ग़र सुख़न के तलवे अंगारों पर जले नहीं
ग़र कंठ शेर का नीला हो ना विष पी के
ग़र हर्फ़ की पीड़ा सुनके मुर्दा ना चीखे
ग़र मतला दर्द में पागल होके ना झूमे
ग़र मक़ता घाव की पपड़ी को जा ना चूमे
ग़र शिकन से ज़ख़्मी ना रदीफ़ का भाल हुआ
ग़र रंग काफ़िये का ना थोड़ा लाल हुआ
ग़र बहर की साँसों में दौड़े ललकार नहीं
ग़र ग़ज़ल के सीने में नंगी तलवार नहीं....
तो ग़ज़ल कहां की ग़ज़ल हुयी
वो ग़ज़ल कहां की ग़ज़ल हुयी.....
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