देखना तुम चीख धीमी रह न जाये
हौसलों की ये इमारत ढह न जाये
रूह है बेदार अब इस ज़ुल्म को
दे अहिंसा की दलीलें; सह न जाये
कैंचियों से काट दो गुलदाउदी को
पीढियां तुझको 'नरम-दिल' कह न जाये
आँख क्या अब थूक में भी खून हो
आज कोई लाश ज़िंदा रह न जाये
दिल तुम्हारा बागियों की फौज सा
'चूडियों-अंगड़ाईयों' में बह न जाये
Monday, August 31, 2009
Thursday, August 27, 2009
ज़ख्म बहुत गहरा है शायद.....
हमने उसकी आँखें पढ़ ली; छुपा कोई चेहरा है शायद
वो हर बात पे हंस देती है; ज़ख्म बहुत गहरा है शायद॥
गुमसुम यादें; घायल माज़ी*, सालों से हैं सखियां उसकी
कच्ची नींद उचट जाती है; ख़्वाबों पे पहरा है शायद॥
शहर जला क्यों घर बिखरा; पगली आकाश से पूछ रही है
कौन उसे जा कर समझाए; आसमान बहरा है शायद॥
सारी उलझन, सब बेचैनी, और जो धुंधला-धुंधला ग़म है
आंसू बन के बह जाने दो; पलकों पे ठहरा है शायद॥
वो हर बात पे हंस देती है; ज़ख्म बहुत गहरा है शायद....
*माज़ी = Past
वो हर बात पे हंस देती है; ज़ख्म बहुत गहरा है शायद॥
गुमसुम यादें; घायल माज़ी*, सालों से हैं सखियां उसकी
कच्ची नींद उचट जाती है; ख़्वाबों पे पहरा है शायद॥
शहर जला क्यों घर बिखरा; पगली आकाश से पूछ रही है
कौन उसे जा कर समझाए; आसमान बहरा है शायद॥
सारी उलझन, सब बेचैनी, और जो धुंधला-धुंधला ग़म है
आंसू बन के बह जाने दो; पलकों पे ठहरा है शायद॥
वो हर बात पे हंस देती है; ज़ख्म बहुत गहरा है शायद....
*माज़ी = Past
Friday, August 21, 2009
अभी तो मुठ्ठी खोली है मां....
मैं सदियों की प्यासी हूँ; मां मुझको दरिया पीने दो
ज़ख्म हरे हैं रहने दो; अपनी शर्तों पे जीने दो
पंख बड़े बेचैन हैं कब से, अब आकाश में उड़ने दो
नर्म कलाई फंस पंजों में; मुड़ती है तो मुड़ने दो
मुझमें जो पगली रहती वो नींद में अक्सर बोली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...
रात को रौंदूं, गगन से उलझूं, तेज़ हवा को मसलूंगी
ज़हर भरा है लहू में मेरे, भाग सपेरे; डस लूंगी
मैं कोयल की कूक नहीं, मैं आग लिये फुफकार रही हूँ
हीरे मोती सब नकली मैं ख़ुद अपना सृंगार रही हूँ
रस्में कसमें तोड़ ये चुनरी खूं से आज भिगो ली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...
ना मैं सीता, ना मैं मीरा; अपनी अलग कहानी है मां
ना आँचल में दूध मेरे और ना आंखों में पानी है मां
सिके सही सुर, गाने दो ना; रूह उक़ाबी मचल रही है
लाल, बैंगनी, काली, पीली, मुझमें कोई रंग बदल रही है
बागी रंग आज़ाद हुए अब बुरा न मानो होली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...
ज़ख्म हरे हैं रहने दो; अपनी शर्तों पे जीने दो
पंख बड़े बेचैन हैं कब से, अब आकाश में उड़ने दो
नर्म कलाई फंस पंजों में; मुड़ती है तो मुड़ने दो
मुझमें जो पगली रहती वो नींद में अक्सर बोली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...
रात को रौंदूं, गगन से उलझूं, तेज़ हवा को मसलूंगी
ज़हर भरा है लहू में मेरे, भाग सपेरे; डस लूंगी
मैं कोयल की कूक नहीं, मैं आग लिये फुफकार रही हूँ
हीरे मोती सब नकली मैं ख़ुद अपना सृंगार रही हूँ
रस्में कसमें तोड़ ये चुनरी खूं से आज भिगो ली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...
ना मैं सीता, ना मैं मीरा; अपनी अलग कहानी है मां
ना आँचल में दूध मेरे और ना आंखों में पानी है मां
सिके सही सुर, गाने दो ना; रूह उक़ाबी मचल रही है
लाल, बैंगनी, काली, पीली, मुझमें कोई रंग बदल रही है
बागी रंग आज़ाद हुए अब बुरा न मानो होली है मां
अभी मेरी ऊँगली ना पकडो, अभी तो मुठ्ठी खोली है मां...
Sunday, August 9, 2009
मुगन्नी उस अधूरे गीत को गाये तो क्या गाये.....
किसी की शायरी पढ़ के जो तुम छाये तो क्या छाये
मुगन्नी* उस अधूरे गीत को गाये तो क्या गाये॥
अमीरी रंग-ओ-रौनक ले के जलसे में चली आई
गरीबी देखती, फिर सोचती, जाये तो क्या जाये॥
वो बच्ची पिछली कुछ रातों से पानी पी के सोती है
हवेली चुन रही है, व्रत के दिन, खाये तो क्या खाये॥
हमें ये फ़क्र कि हम हक़ से तारे तोड़ लाते हैं
जो सूरज मांग कर आकाश से लाये तो क्या लाये॥
चराग़-ए-इश्क लड़ के बुझ गया; तब नींद से जागे
हमारे दिल पे दस्तक दी तो क्या, आये तो क्या आये॥
*मुगन्नी = गायक
मुगन्नी* उस अधूरे गीत को गाये तो क्या गाये॥
अमीरी रंग-ओ-रौनक ले के जलसे में चली आई
गरीबी देखती, फिर सोचती, जाये तो क्या जाये॥
वो बच्ची पिछली कुछ रातों से पानी पी के सोती है
हवेली चुन रही है, व्रत के दिन, खाये तो क्या खाये॥
हमें ये फ़क्र कि हम हक़ से तारे तोड़ लाते हैं
जो सूरज मांग कर आकाश से लाये तो क्या लाये॥
चराग़-ए-इश्क लड़ के बुझ गया; तब नींद से जागे
हमारे दिल पे दस्तक दी तो क्या, आये तो क्या आये॥
*मुगन्नी = गायक
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