वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Wednesday, September 23, 2009

गीत को मेरे, तेरी आवाज़ भी तो चाहिये....

दर्द को इन धड़कनों का साज़ भी तो चाहिये
गीत को मेरे, तेरी आवाज़ भी तो चाहिये

सिर्फ़ दौलत के सहारे 'ताज' कब बनते मियां
सरफिरों में कुछ ग़म-ए-मुमताज़ भी तो चाहिये

हुस्न की रानाईयां सब कुछ नहीं है गुलबदन
दिल को छूने के लिए; "अंदाज़" भी तो चाहिये

पंख के ज़ख्मों की टीसें; यूं तो थोडी कम सी है
उड़ने को पर हसरत-ए-परवाज़ भी तो चाहिये

जाम छलकाने फ़क़त से महफ़िलें सजती नहीं
दमसाज़ भी तो चाहिये; दिलनाज़ भी तो चाहिये

गीत को मेरे, तेरी आवाज़ भी तो चाहिये...

5 comments:

  1. सिर्फ़ दौलत के सहारे 'ताज' कब बनते मियां
    सरफिरों में कुछ ग़म-ए-मुमताज़ भी तो चाहिये

    हुस्न की रानाईयां सब कुछ नहीं है गुलबदन
    दिल को छूने के लिए; "अंदाज़" भी तो चाहिये
    हर लफ्ज़ लाजवाब है बधाई

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  2. सिर्फ़ दौलत के सहारे 'ताज' कब बनते मियां
    सरफिरों में कुछ ग़म-ए-मुमताज़ भी तो चाहिये

    behatareen rachna, sabhi sher lajawaab. badhaai sweekaren.

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  3. husn ki raa`naaeeaaN sb kuchh nahi haiN gulbadan
    dil ko chhoone ke liye andaaz bhi to chahiye

    waah !!
    khoobsurat sher....saath liye ja rahaa hooN huzoor
    poori gzl asar chhorti hai...
    mubarakbaad

    ---MUFLIS---

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  4. विशाल साहब आपकी रचनाओं मे एक खूबसूरत रवानी होती है..एक अप्रितम भावसौन्दर्य और अद्भुत गेयता..यह ग़ज़ल भी उसी का उदाहरण है..हर शेर जैसे कि खान से निकाला हुआ..बहुमूल्य..और मीठे भावों का स्रोत.
    जाम छलकाने फ़क़त से महफ़िलें सजती नहीं
    दमसाज़ भी तो चाहिये; दिलनाज़ भी तो चाहिये


    आपकी पिछली रचना अभी तक गुनगुना रहा हूँ..

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  5. सिर्फ़ दौलत के सहारे 'ताज' कब बनते मियां
    सरफिरों में कुछ ग़म-ए-मुमताज़ भी तो चाहिये

    हुस्न की रानाईयां सब कुछ नहीं है गुलबदन
    दिल को छूने के लिए; "अंदाज़" भी तो चाहिये
    वाह विशाल भाई ग़ज़ल का एक एक शेर काबिले तारीफ है। बहुत अच्छा लिख रहे हो । आपकी ग़ज़ल ने बहुत प्रभावित किया ।

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