वक़्त की क़ैद में; ज़िन्दगी है मगर... चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं....

Friday, July 17, 2009

चलता पुर्जा शायर है, गुलज़ार नहीं है

खूं तो अब भी लाल है, रफ़्तार नहीं है
'काफ़िर' तेरी ग़ज़लों में अब धार नहीं है॥

बंद करके ख़ुद ही सारी खिड़कियाँ वो
बोलते हैं घर ये हवादार नहीं है॥

शोहरों के नकाब में ना मर्सिया चलें
शहर में ऐसा कोई त्योहार नहीं है॥

उसूलों की लिबास जला डालिए हुज़ूर
अब पाँच साल आपकी सरकार नहीं है॥

ये क्या नए जुड़े तो पिछले छूटते गए
मोहब्बत इक किताब है, अख़बार नहीं है॥

***सीधा सादा आदमी है, सीधी बात कहे
चलता पुर्जा शायर है, गुलज़ार नहीं है ***

6 comments:

  1. बहुत तेज़ धार नज़र आ रही है

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  2. Excellent one, Vishal...loved every word and every line of it!

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  3. आज पहली बार आये हैं आपके दरबार
    हमें कहाँ मालूम आप नहीं है गुलज़ार
    गुलज़ार भी हो जाएँ एक बार गुलज़ार
    देख ले आकर जो आपके शेरों की धार

    वाह वाह और फिर वाह ....

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  4. बंद करके ख़ुद ही सारी खिड़कियाँ वो
    बोलते हैं घर ये हवादार नहीं है॥

    यूँ तो हस शेर काबिले तारीफ है ......... पूरी ग़ज़ल लाजवाब है पर ये बहूत पसंद आया .....कमाल का लिखा है

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  5. bahut badia aap bhi gulzaar hi hain sahab, sahi mein

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